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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९
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68 मनुष्य भव की सार्थकता किसमें ? (गौतम ब्राह्मण की तरह या रुद्रदत्त ब्राह्मण की तरह ?)
इस जम्बूद्वीप की अयोध्या नगरी में अनन्तवीर्य नाम का राजा रहता था। उसी नगरी में कुबेर के समान सुरेन्द्रदत्त नाम का सेठ रहता था। वह सेठ प्रतिदिन दस दीनार से, अष्टमी को सोलह दीनार से, अमावस्या को चालीस दीनार से और चतुर्दशी को अस्सी दीनार से अरहन्त भगवान की पूजा करता था। इस प्रकार वह अपनी संचित पूंजी का सदुपयोग करता था। सुपात्र को दान देता था, चारित्र का पालन करता था और उपवास करता था। इन सब कारणों से सेठ ने 'धर्मशील' नाम का पद प्राप्त किया था।
एक दिन जब उसने जलमार्ग से विदेश जाकर धन कमाने का विचार किया, और बारह वर्ष व्यापार में लग जावेंगे – ऐसा जानकर उसने बारह वर्ष तक भगवान की पूजा करने के लिये जितना धन चाहिये था उतना धन अपने मित्र रुद्रदत्त ब्राह्मण को सौंपा और कहा कि इस धन से तू जिनपूजादि कार्य करते रहना।
सेठ के परदेश जाने के पश्चात् रुद्रदत्त ब्राह्मण ने थोड़े ही दिनों में समस्त ही धन परस्त्री तथा जुआ आदि त्यसनों में खर्च कर दिया। उसके बाद वह चोरी आदि कार्य करने लगा। एक. गत श्येनक नाम के कोतवाल ने उसे चोरी करते देखकर कहा कि तू ब्राह्मण है, अत: मैं तुझे मारता नहीं हूँ परन्तु तू यह नगर छोड़कर चला जा। यदि फिर किसी समय तुझे ऐसा काम करते हुए देख लिया तो मैं तुझे यमराज के पास भेज दूंगा – ऐसा कहकर उस पर क्रोधित हुआ। रुद्रदत्त भी वहाँ से निकल कर उल्काभिमुख पर रहने वाले भीलों के स्वामी पापी कालक से जा मिला।
एक समय रुद्रदत्त अयोध्या नगरी में गायों के समूह का अपहरण करने आया था, वहाँ श्येनक कोतवाल द्वारा मारे जाने पर वह जीवन पर्यंत किये गये महापाप के कारण सातवें नरक में गया। वहाँ से निकलकर दृष्टिविष नाम