Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 71
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ का सर्प हुआ फिर नरक गया और वापिस सर्प बना, फिर नरक गया और वहाँ से आकर भील बना। इस प्रकार सभी नरकों में जाकर बहुत दुःख और कष्टों में से बाहर निकलकर त्रस-स्थावर योनियों में बहुत काल तक परिभ्रमण करता रहा। ___ अन्त में इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी कुरुजंगल देश के हस्तिनापुर नगर में जब राजा धनंजय राज्य करता था तब गौतम गोत्री कपिष्टल नाम के ब्राह्मण के अनुधर नाम की अंध-स्त्री से वह रुद्रदत्त का जीव अत्यन्त गरीब परिवार में गौतम नाम का पुत्र हुआ। पुत्र उत्पन्न होते ही पूरे के पूरे परिवार का नाश हो गया। उसे खाने के लिये अन्न नहीं मिलता था, उसका पेट सूख गया था और हड्डियाँ व नसें दिखने लगी थीं। जिससे उसका शरीर बहुत खराब लगता था। उसके बालों में लीखें पड़ी थी। जहाँ भी वह सोता वहाँ के मनुष्य उसे मारते थे। अपनी शरीर की स्थिति के लिये, कभी भी अलग न हो - ऐसे मित्र समान भिक्षापात्र को वह सदा अपने हाथ में रखता था। इच्छित रस पाने को वह हमेशा “दो, दो" ऐसे शब्दों द्वारा मात्र भीख मांगने से ही संतोष प्राप्त करने का लालची था, परन्तु इतना अभागा था कि भिक्षा द्वारा उसका पेट नहीं भरता था। जिस प्रकार त्योहारों के दिन में कौआ खाना ढूंढने के लिये इधर-उधर भटकता रहता है, उसी प्रकार वह भी भिक्षा प्राप्त करने के लिये इधर-उधर भटकता रहता था। वह सर्दी, गर्मी और हवा के झपट्टे बारम्बार सहन करता था। वह हमेशा गंदा रहता था। मात्र रसनेन्द्रिय के विषय की इच्छा रखता था, अन्य सभी इन्द्रियों का रस छूट गया था। जिसप्रकार राजा हमेशा दण्डधारी होता है, वैसे ही यह भी हमेशा दण्डधारी ही रहता था – हाथ में लकड़ी रखता था। “सातवें नरक में उत्पन्न होने वाले नारकी का रूप ऐसा होता है" मानो नरक के दुःख दर्शाने के लिए ही वह जन्मा हो अथवा मानो सूर्य के भय से अंधकार का समूह मनुष्य का रूप धारण करके चल रहा हो- ऐसा लगता था। तात्पर्य यह है कि वह अत्यन्त घृणास्पद था, पापी था। यदि उसे किसी दिन कष्टपूर्वक पूर्ण आहार मिल जाता तो भी आँखों से अतृप्त जैसा लगता था। वह जीर्णशीर्ण व फटे हुए कपड़े अपनी

Loading...

Page Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84