Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 76
________________ 74 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ यह सुनकर पुण्यशालिनी सत्यभामा ने अपने शीलभंग के डर से कपिल का त्याग कर दिया। तथा रणवास में जाकर राजा की शरण ग्रहण करली। कपिल ने इतने दिनों तक कपट करने का पाप किया था, इसलिये राजा ने उसे गधे पर बैठाकर अपने देश से बाहर निकाल दिया। दान, पुण्य आदि गुणों से शोभायमान तथा शीलव्रत से विभूषित पवित्र सती सत्यभामा रणवास में सुख पूर्वक रहने लगी। __पुण्योपार्जन करने में हमेशा तत्पर श्रीषेण राजा पात्रदान देने के लिये प्रतिदिन स्वयं भावना भाता था, एक दिन अभिगति और अरिंजय नामक दो आकाशगामी चारणमुनि उसके घर पधारे। वे दोनों मुनिराज हर प्रकार के परिग्रहों से तो रहित थे, परन्तु गुणरूपी सम्पदा से रहित नहीं थे। वे सभी जीवों का हित करने वाले थे और धीर-वीर सदा ज्ञान-ध्यान में उत्साहित रहते थे। वे यद्यपि लौकिक स्त्री की वांछा से रहित थे, तथापि मुक्तिरूपी स्त्री में अत्यन्त मोहित थे। मनुष्य और देव सभी उनकी पूजा करते थे, वे तीनों काल सामायिक करते थे और रत्नत्रय से सुशोभित थे। वे इच्छा और अभिमान से रहित थे। मूलगुण और उत्तरगुणों की खान थे। तथा भव्यजीवों को संसाररूपी समुद्र से पार करने के लिये जहाज के समान थे। वे ज्ञानरूपी महासागर के पारगामी थे। पृथ्वी के समान क्षमा के धारक थे तथा कर्मरूपी ईंधन को जलाने के लिये दोनों अग्नि के समान थे। जल के समान स्वच्छ हृदय वाले थे। वायु के समान सब देशों में विहार करने वाले थे। अपने धर्म का उद्योत करने वाले थे। दोनों मुनि चौरासी लाख उत्तर गुणों से विभूषित थे तथा शील के अट्ठारह हजार भेदों से सुशोभित थे। ___ - ऐसे दोनों मुनिराज आहर के लिये राजा के यहाँ पधारे। जिसप्रकार अपरिमित खजाना देखकर गरीब मनुष्य प्रसन्न होता है, उसीप्रकार मनुष्यों को मोक्ष कराने वाले दो मुनिराजों को देखकर राजा श्रीषेण अत्यन्त आनन्दित हुआ। राजा ने मस्तक झुकाकर दोनों मुनिराजों के चरणों में नमस्कार किया। तथा 'तिष्ठ-तिष्ठ' कहकर दानों

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