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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १९
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कमर में बांधे रखता था। उसका शरीर बहुभाग चोटों से युक्त था, उसमें से दुर्गन्ध आती थी। तथा उसे भिनभिनाती मक्खियाँ हमेशा घेरे रहती थी, वह कभी हटती नहीं थी । मक्खियों के चिपकने से उसे बहुत गुस्सा आता था । नगर के बालकों का झुण्ड हमेशा उसके पीछे-पीछे रहता था और पत्थर आदि प्रहारों से उसे पीड़ा पहुँचाता था । वह क्रोधित होकर उन बालकों के पीछे दौड़ता भी था, परन्तु बीच में ही गिर जाता था । इस प्रकार वह अनेक कष्ट पूर्वक अपने दिन बिता रहा था।
किसी एक समय कालादि - लब्धियों की अनुकूल प्राप्ति से वह आहार के लिये नगर में भ्रमण करने वाले समुद्रसेन नाम के मुनिराज के पीछे जाने लगा। मुनिराज का आहारदान श्रवण सेठ के यहाँ हुआ। सेठ ने उस गौतम ब्राह्मण को भी भरपेट भोजन करा दिया। भोजन करने के बाद वह मुनिराज के आश्रम में जाकर कहने लगा कि आप मुझे अपने जैसा बना दो। मुनिराज ने उसके वचन सुनकर पहले तो यह निर्णय किया कि यह वास्तव में भव्य है । फिर उसे कुछ दिनों तक अपने पास रखकर उसके हृदय की परख की, तत्पश्चात् वह श्रीमुनि के चरणों का चेरा बन कर स्वाध्याय - साधना-आराधना में लग गया और उसने शान्ति के साधनभूत सम्यग्दर्शन पूर्वक संयम ग्रहण कर लिया । उसको एक वर्ष पश्चात् बुद्धि आदि ऋद्धियाँ भी प्राप्त हो गई।
अब वह गुरु के स्थान तक पहुँच गया, उनके समान बन गया । आयु के अन्त में उसके गुरु मध्यम ग्रैवेयक के सुविशाल नाम के उपरितन विमान में अहमिन्द्र हुए और श्री गौतम मुनिराज भी अंत में भले प्रकार से विधिपूर्वक आराधनाओं की आराधना करके समाधिमरण करके उसी मध्यम ग्रैवेयक के सुविशाल विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुए। वहाँ
दिव्यसुख का उपभोग प्राप्त करके वह ब्राह्मण मुनि का जीव अट्ठाईस सागर की आयु पूर्ण होने पर वहाँ से चयकर अन्धकवृष्टि (श्री नेमिनाथ भगवान के दादाजी) नाम का राजा हुआ ।
एकबार उनने सुप्रतिष्ठित जिनेन्द्र के समीप जाकर अपने पूर्वभव