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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९
जो यह मानता है कि अचेतन पदार्थों के कार्य का कर्ता जीव है, वह जीव-अजीव के कारण-कार्य के संबंध में भयंकर भूल करता है और इस कारण परद्रव्यों को अपने अनुसार परिणमाने के विकल्प में सदा दुःखी बना रहता है।
भाई ! यह बताओ कि क्या तुमने कभी जीव को देखा है ? यदि नहीं देखा तो फिर तुम कैसे कहते हो कि अजीवादि परद्रव्य का जीव करता है। जिस वस्तु को तुमने देखा ही नहीं, फिर उसके ऊपर मुफ्त का झूठा आरोप क्यों लगाते हो? यदि जीव को तुमने देखा होता तो वह तुम्हें चैतन्यरूप ही दिखाई देता। ज्ञाता-दृष्टा ही दिखाई देता। फिर तुम उसे परद्रव्य का कर्ता कभी नहीं मानते। इसलिए तुम बिना देखे जीव के ऊपर अजीव के कर्तृत्व का मिथ्या आरोप मत लगाओ। यदि झूठा आरोप लगाओगे तो तुम्हें उस अपराध की सजा भी मिलेगी। तुम झूठे कहलाओगे।
जैसे - राजमहल में चोरी हुई, एक सज्जन मनुष्य जो कभी राजमहल में गया ही नहीं, जिसने कभी राजमहल को देखा भी नहीं। यदि कोई उसके ऊपर कलंक लगावे कि राजमहल से चोरी इसी ने की है तो कलंक लगाने वाले से पूछा जाता है कि हे भाई !
क्या उस मनुष्य को तुमने .रो करते देखा है ? क्या उस मनुष्य को तुम जानते हो ? क्या उस मनुष्य के पास तुमने चोरी का माल देखा है ? नहीं
तो फिर, अरे दुष्ट ! जिस मनुष्य को तूने चोरी करते देखा नहीं, जो मनुष्य राजमहल में कभी आया नहीं, जिस मनुष्य को तू जानता तक नहीं
और जिस मनुष्य के पास चोरी का सामान होने की कोई निशानी नहीं - ऐसे सज्जन मनुष्य के ऊपर तू चोरी करने का मिथ्या आरोप लगाता है, तुझे इस अपराध की सजा मिलेगी। तू जगत में झूठा कहलायेगा।
इसीप्रकार जड़ शरीररूपी महल में किसी भी प्रकार का कार्य हुआ।