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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १९
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दुकान के चबूतरे जाकर बैठ जाता और सेठजी बातें ध्यान से सुनता रहता । विचार भी करता, पर उसको और बहुत सी व्यावहारिक व धार्मिक बातों का ज्ञान तो प्राप्त हुआ पर कार्य-कारण व्यवस्था के सम्बंध में उसकी जिज्ञासा अभी भी बनी रही। उसने एक दिन अत्यंत विनम्रता पूर्वक सेठजी से निवेदन किया कि वे कार्य-कारण व्यवस्था के सम्बंध में उसे थोड़ा खोलकर समझाने की कृपा करें।
तब सेठजी ने कहा – तुम्हारी जिज्ञासा देखकर मैं थोड़ा समझाता हूँ, फिर भी यदि और अच्छी तरह समझने का भाव हो तो प्रति रविवार को मन्दिरजी में कक्षा चलती है, वहाँ आया करो।
उसने कहा – मैं वहाँ तो आऊँगा ही, पर मुझे वहाँ कुछ समझ में आ सके - इतना ज्ञान तो आप ही दे दो ।
उसकी तीव्र जिज्ञासा देखकर सेठजी ने कुछ उदाहरणों के माध्यम से उसे समझाने का इसप्रकार उद्यम शुरु किया । सुनो,
जैसे - किसी को धंधा करने से पैसा मिले तो वह कोई धंधा करने का फल नहीं है वह तो उसके पूर्व पुण्य के उदय का फल है, क्योंकि उसी प्रकार hi में किसी को उतना अधिक पैसा नहीं मिलता और उसको भी कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता। इससे पता चलता है कि वह पैसा उसे धंधे से नहीं मिला, बल्कि उसके पूर्व पुण्य के उदय से मिला है। पर उसने जो धंधा करने का भाव किया उससे तो उसे धंधा करने के विकल्प का दुःख एवं अशुभ भाव होने से पाप का ही बंध हुआ।
इसी प्रकार किसी के प्रवचन करने या सुनने का भाव किया या किसी का भला करने का भाव किया उससे तो उसे प्रवचन करने के विकल्प का, प्रवचन सुनने के विकल्प का, भला करने के विकल्प का वास्तव में तो दुःख ही हुआ, क्योंकि किसी भी प्रकार का विकल्प हो दुःखस्वरूप व दुःखदायी ही होता है। हाँ ! इतना अवश्य है कि यदि वह विकल्प शुभरूप हो तो पुण्यबंध करता है और अशुभरूप हो तो पापबंध करता है।