Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 65
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १९ इसके लिए कुछ आवश्यक वस्तुएँ एकत्रित कर लेते हैं । फिर क्या था किसी ने वस्त्र, किसी ने अनाज, किसी ने नगदी देकर उसे निश्चिंत कर दिया । फिर वह सज्जन व्यक्ति बोला - इसके लिए आप सबको धन्यवाद ! हूँ कि आप सबने सहयोग किया में कहा कि इसमें सन्देह की क्या बात है ? - 63 आप सबने इसका सहयोग किया अब मैं आप सबसे एक प्रश्न पूँछता यह तो सत्य है । सबने एक स्वर तब उसने कहा कि इसका कर्त्ता आप अपने को मानते हो - इसका मतलब यह है किआप भी पुण्य-पाप, भवितव्य, योग्यता, निमित्त आदि को नहीं मानते। यह सुनकर सब विचार में पड़ गये । तब उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - हम सब जबतक कार्य-कारण योग्यता को भलीप्रकार यथार्थ नहीं जानेंगे, तबतक ऐसे ही भ्रम में पड़े रहेंगे। अभी तक हम यह भी मानते आ रहे हैं कि सबको अपने-अपने पुण्य-पाप के उदयानुसार ही संयोग प्राप्त होते हैं और यह भी मानते हैं कि हमने दूसरे का सहयोग किया, दूसरे ने हमारा सहयोग किया, अथवा हमने अपने पुरुषार्थ से अपना कार्य किया इसमें तुमने क्या किया आदि आदि.... । सब उस महानुभाव के विचार काफी गंभीरता से सुन रहे थे, वह कृषक भी यह विचार सुनकर तथा सबका सहयोग प्राप्त कर, पहले व दूसरे व्यक्ति के द्वारा की गई व्यंगोक्तियों को याद कर मन ही मन सोच रहा था कि - " वास्तव में सत्य तो यही है, जो सेठजी कह रहे हैं, मैं अनेक वर्षों से इनकी दुकान पर जाता रहा, पर ये रूप तो इनका मैंने आज ही देखा, ये तो बड़े विद्वान हैं, इनकी तो निरन्तर संगति करके सही वस्तु स्वरूप जानकर अपने यथार्थ सुख का मार्ग समझना चाहिए। " अब तो उसे जब भी अपने काम से समय मिलता वह सेठजी की

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