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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १९
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पथिक दौड़ा और वृक्ष के नीचे की ओर लटकती दो उपशाखाओं को पकड़कर वह ऊपर चढ़ गया।
हाथी का प्रकोप और भी बढ़ गया, यह उसकी मानहानि है। इस वृक्ष ने उसके शिकार को शरण दी है। अतः वह भी अब रह न पायेगा । अपनी लम्बी सूंढ से वृक्ष को वह जोर से हिलाने लगा। पथिक का रक्त सूख गया। अब मुझे बचानेवाला कोई नहीं । नाथ ! क्या मुझे जाना ही होगा, बिना कुछ देखे, बिना कुछ चखे ? "नहीं, प्रभु का नाम बेकार नहीं जाता। ऊपर दृष्टि उठाकर देख”, (अन्तर्मन से) आकाशवाणी ने पुनः आशा का संचार किया। ऊपर की ओर देखा । मधु का एक बड़ा छत्ता, जिसमें से बूँद-बूँद करके झर रहा था उसका मद ।
आश्चर्य से मुँह खुला का खुला रह गया। यह क्या ? और अकस्मात् ही - आ हा हा, कितना मधुर है यह ? एक मधु बिन्दु उसके खुले मुँह में गिर पड़ा। वह चाट रहा था उसे और कृतकृत्य मान रहा था अपने को । एक बूँद और। मुँह खोला और पुनः वही स्वाद । एक बूँद और.... 1 और इसी प्रकार मधुबिन्दु के एक मधुर स्वाद में खो गया वह, मानों उसका जीवन बहुत सुखी बन गया है। अब उसे और कुछ नहीं चाहिए, एक मधुबिन्दु। भूल गया वह अब प्रभु के नाम को । उसे याद करने से अब लाभ भी क्या है ? देख कोई भी मधुबिन्दु व्यर्थ पृथ्वी पर न पड़ने पावे। उसके सामने मधुबिन्दु के अतिरिक्त और कुछ न था। भूल चुका था वह यह कि नीचे खड़ा वह विकराल हाथी अब भी वृक्ष की जड़ में सूड़ से पानी दे-देकर उसे ज़ोर-ज़ोर से हिला रहा है। क्या करता उसे याद करके, मधुबिन्दु जो मिल गया है उसे, मानों उसके सारे भय टल चुके हैं। वह मग्न है मधुन्निन्दु की मस्ती में ।
वह भले न देखे, पर प्रभु तो देख रहे हैं । अरेरे! कितनी दयनीय है इस पथिक की दशा । नीचे हाथी वृक्ष को समूल उखाड़ने पर तत्पर है और ऊपर वह देखो दो चूहे बैठे उस डाल को धीरे-धीरे कुतर रहे