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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ कौटुम्बिक चिन्ताओं की परवाह करता हूँ और न चारों गतियों के परिभ्रमण को गिनता हूँ। कभी-कभी लिया हुआ प्रभु का नाम है वह पुण्य, जिसके कारण कि यह तुच्छ इन्द्रियसुख कदाचित् प्राप्त हो जाता है।
यह मधुबिन्दुरूपी इन्द्रिय सुख भी वास्तव में सुख नहीं, सुखाभास है। जिसप्रकार कि बालक के मुख में दिया जाने वाला वह निपल, जिसमें कुछ भी नहीं होता है। जिसप्रकार वह केवल मिठास की कल्पना मात्र करके सो जाता है उसी प्रकार इन इन्द्रिय-सुखों में मिठास की कल्पना करके मेरा विवेक सो गया है, जिसके कारण गुरुदेव की करुणाभरी पुकार मुझे स्पर्श नहीं करती तथा जिसके कारण उनके करुणाभरे हाथ की अवहेलना करते हुए भी मुझे लाज नहीं आती। गुरुदेव के स्थान पर है यह गुरुवाणी, जो नित्य ही पुकार-पुकारकर मुझे सावधान करने का निष्फल प्रयास कर रही है।
यह है संसार-वृक्ष का मुँह बोलता चित्रण व मेरी आत्मगाथा। भो चेतन! कबतक इस सागर के थपेड़े सहता रहेगा ? कबतक गतियों का ग्रास बनता रहेगा ? कबतक काल द्वारा भग्न होता रहेगा ? प्रभो ! ये इन्द्रियसुख मधुबिन्दु की भाँति निःसार हैं, सुख नहीं सुखाभास हैं, ‘एक बिन्दुसम'। ये तृष्णा को भड़काने वाले हैं, तेरे विवेक को नष्ट करने वाले हैं। इनके कारण ही मुझे हितकारी गुरुवाणी सुहाती नहीं। आ! बहुत हो
चुका, अनादिकाल से इसी सुख के झूठे आभास में तूने आज तक अपना हित न किया। अब अवसर है, बहती गंगा में मुँह धोले। बिना प्रयास के ही गुरुदेव का यह पवित्र संसर्ग प्राप्त हो गया है। छोड़ दे अब इस शाखा को, शरण ले इन गुरुओं की और देख अदृष्ट में तेरे लिये वह परम आनन्द पड़ा है, जिसे पाकर तृप्त हो जायेगा तू, सदा के लिये प्रभु बन जायेगा तू।
- शान्तिपथ प्रदर्शन से साभार रे जीव ! तू अपना स्वरूप देख तो अहा। या-जाट-माल की; - ome + -