Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 55
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ आपकी और मेरी सबकी आत्मकथा है यह। आप हँसते हैं उस पथिक की मूर्खता पर, काश ! एक बार हँस लेते अपनी मूर्खता पर भी। इस अपार व गहन संसार-सागर में जीवन के जर्जरित पोत को खेता हुआ मैं चला आ रहा हूँ। नित्य ही अनुभव में आनेवाले जीवन के थपेड़ों के कड़े अघातों को सहन करता हुआ, यह मेरा पोत कितनी बार टूटा और कितनी बार मिला, यह कौन जाने ? जीवन के उतार-चढ़ाव के भयंकर तूफान में चेतना को खोकर मैं बहता चला आ रहा हूँ, अनादिकाल से। ___ माता के गर्भ से बाहर निकलकर आश्चर्यकारी दृष्टि से इस सम्पूर्ण वातावरण को देखकर खोया-खोया-सा मैं रोने लगा; क्योंकि मैं यह न जान सका कि मैं कौन हूँ, मैं कहाँ हूँ, कौन मुझे यहाँ लाया है, मैं कहाँ से आया हूँ, क्या करने के लिए आया हूँ और मेरे पास क्या है जीवन निर्वाह के लिये ? सम्भवतः माता के गर्भ से निकलकर बालक इसीलिए रोता है। 'मानों में कोई अपूर्व व्यक्ति हूँ', ऐसा सोचकर मैं इस वातावरण में कोई सार देखने लगा। दिखाई दिया मृत्युरूपी विकराल हाथी का भय । डरकर भागने लगा कि कहीं शरण मिले। __ बचपन बीता, जवानी आई और भूल गया मैं सब कुछ। विवाह हो गया, सुन्दर स्त्री घर में आ गई, धन कमाने और भोगने में जीवन घुलमिल गया, मानों यही है मेरी शरण अर्थात् गृहस्थ-जीवन; जिसमें हैं अनेक प्रकार के संकल्प विकल्प, आशायें व निराशायें। यही हैं वे शाखायें व उपशाखायें, जिनसे समवेत यह गृहस्थ जीवन है वह शरणभूत वृक्ष। आयुरूपी शाखा से संलग्न आशा की दो उपशाखाओं पर लटका हुआ मैं मधुबिन्दु की भाँति इन भोगों में से आने वाले क्षणिक स्वाद में खोकर भूल बैठा हूँ सब कुछ। कालरूप विकराल हाथी अब भी जीवन तरु को समूल उखाड़ने में तत्पर बराबर इसे हिला रहा है। अत्यन्त वेग से बीतते हुए दिन-रात ठहरे

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