Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ 58 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ तू तो सेठ है! भिखारी नहीं, 'तू तो सेठ है।' ------ भिखारी ने आश्चर्य से पूछा – मैं सेठ हूँ ? सेठजी ने कहा – हाँ। भिखारी बोला – कैसे? सेठजी ने कहा- तू अपना भिखारीपन छोड़ दे और हमारे यहाँ काम करने लग जा। भिखारी ने कठिनाई से अपने मन को समझाया और सेठजी की बात को स्वीकार करने का मानस बनाया और सेठजी से कहा - मैं आपके यहाँ काम करने को तैयार हूँ, पर आप मुझे धोखा मत देना, मेरा कोई सहारा नहीं है, मेरे तो ऊपर आकाश, नीचे धरती और मध्य में भिक्षा ही सहारा है। सेठजी ने कहा-परिश्रम का फल मीठा होता है, तुम परिश्रम करते रहना, मैं तुम्हें विश्वास देता हूँ कि तुम्हें कभी धोखा न दूंगा। उसने सेठजी की बात मान ली। सेठजी ने उससे कहा - तू पहले स्नान कर ले। फिर मैं दूसरे कपड़े देता हूँ, पहन ले, खाना देता हूँ, खा ले फिर जो काम देता हूँ, वह कर । सेठजी के कहे अनुसार वह कार्य करने लगा, सेठजी के यहाँ बहुत नौकर थे उन्हें नौकर की जरूरत तो नहीं थी, फिर भी उसे अपनी दुकान पर नौकर रख लिया। अब उससे प्रतिदिन काम लेते, खाना खिलाते और कुछ न कुछ समझाते रहते। वह काम करने में आलसी था। आखिर था तो भिखारी ही न । वह कुछ दिनों बाद जाने लगा, सेठजी ने समझाया तो वह रुक गया। सेठजी के नित्य कुछ न कुछ शिक्षा देने के कारण उसमें बहुत परिवर्तन आने लगा। जब उसका एक माह पूरा हुआ और सेठजी ने उसे उसका वेतन दिया तो वह उछल पड़ा। वह सेठजी की प्रशंसा करने लगा - सचमुच आप सबसे बड़े परोपकारी हो। आपने मुझे प्रतिदिन दोनों समय खिलाया और धन भी दिया । सदा के लिए पेट भरने की कला भी सिखा दी। सेठजी ने कहा-मैं कोई परोपकारी नहीं। तुमने जो मेहनत

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84