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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १९
आचार्य बोले - क्यों ?
वह बोला - क्योंकि वह तो मेरा है ही नहीं ।
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आचार्य बोले - तब फिर क्या दुकान, धंधा, परिवार, भोग ये सब तेरे हैं । यदि तू इन्हें अपना मानता है उनसे अपने को सुखी मानता है तब फिर तूने इनसे अपने को सुखी मानना छोड़ दिया - यह कैसे कहा जा सकता है ? ये सब तेरे नहीं हैं, यदि तू ऐसा मानता है तो फिर तुझे उनकी याद क्यों आती है ? आम के बाग की याद तो नहीं आती ।
वह बोला - बस ! आचार्य देव, अब कुछ कहने की जरूरत नहीं है, मुझे सब समझ में आ गया। अब मैं परद्रव्य को अपने से भिन्न कोरी वाणी में नहीं, विचारों में नहीं, बल्कि अपनी मान्यता में, श्रद्धा में, ज्ञान में एवं आचरण में स्वीकार करता हूँ। उस गाँव के बाहर आम के बाग की तरह ।
वह आगे बोला - आचार्य देव ! आपने मेरे ज्ञानचक्षु खोलकर मेरे ऊपर अनंत-अनंत उपकार किया है। अब तो मैं आपके ही पास रहकर इस ज्ञान कला में पारंगत होऊँगा ।
आचार्य बोले- मैं तो तुम्हारे लिए परद्रव्य हूँ ।
वह बोला - यह बात मुझे भलीभांति पता है, फिर भी मैं आपको तबतक नहीं छोड़ सकता, जबतक इस कला मैं पारंगत नहीं हो आऊँ ।
आचार्य बोले- अब मुझे कुछ नहीं कहना है ।
फिर वह पात्र भव्यात्मा आचार्य के साथ रह कर पहले शिक्षा, फिर दीक्षा लेकर अपनी साधना पूर्ण कर अल्पकाल में अपने परिपूर्ण सुख स्वभाव को पर्याय में प्रगट कर - अरहंत - सिद्ध दशा प्रगट कर अनंत काल के लिए सुखी हो गया ।
हमें भी ऐसा ही करना है । इस कार्य को करने के हमें सर्व प्रकार की अनुकूलता मिली है, अवसर चूकना योग्य नहीं है।
अति दुर्लभ अवसर पाया है, जग प्रपंच में नहीं पड़ो । करो साधना जैसे भी हो, यह नरभव अब सफल करो ।।