________________
57
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९
इस पर गुरुजी ने कहा – भली कही। यह ठीक है कि तुम नारायण हो और हाथी भी नारायण है, किन्तु उस पर बैठे हुए महावत रूपी नारायण की बात तुमने क्यों नहीं मानी। अगर उस नारायण की बात मानते तो यह दशा नहीं होती। ___“सारे संसार में परमेश्वर का वास है, चाहे फिर वह चिंटी जैसा क्षुद्र हो अथवा हाथी जैसा विशाल हो, सभी परमात्मा को प्यार करते हैं। प्रत्येक जीव में उसी का निवास है।" यह एक मात्र लोक में से लिया गया उदाहरण मात्र है। जैन दर्शन के अनुसार सभी जीवस्वभाव से परमात्मा हैं और स्वभाव का आश्रय लेकर पर्याय में भी परमात्मा बन सकते हैं।
इस उदाहरण से हमें यह शिक्षा मिलती है कि “हमें भी अपने जीवन के कल्याण हेतु शब्दज्ञान को नहीं, बल्कि अनुभव, विवेक और ज्ञानी धर्मात्माओं के अनुभवज्ञान को समझ में लेना होगा, तभी कल्याण होगा। आचार्यों ने कहा है कि आगम का (सेवन) अभ्यास, युक्ति का अवलम्बन, परम्परा गुरु का उपदेश और स्वानुभव ये चार सूत्र पूरे होने पर ही आत्मनुभव, रत्नत्रय, मोक्षमार्ग आरम्भ होता है।
हम शास्त्र तो पढ़ लें, पर उसका हार्द न समझें, तो सब व्यर्थ है। युक्ति से बात तो समझ लें, पर प्रयोजन भूल जायें या विपरीत निकाल लें तो भी सब व्यर्थ है।
इसीप्रकार गुरु का उपदेश तो सुनें पर तदनुसार अपने श्रद्धा-ज्ञानआचरण को न बनायें, मात्र तोता की भांति उसे शब्दों में सीख लें, तो सब व्यर्थ है और कदाचित् किसी अपेक्षा ये तीनों बातें पूरी भी हो जायें, पर स्वयं अनुभव न करें, स्वयं उससे प्रभावित न हों, लाभान्वित न हों, तो सब व्यर्थ है। अतः कहा है -
सबसे पहले तत्त्वज्ञान कर, स्व-पर भेद-विज्ञान करो। निजानन्द का अनुभव करके, भोगों में सुखबुद्धि तजो॥
-