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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९
___30 विरक्त हो गये। उन्होंने जिनदीक्षा अंगीकार कर ली। कुम्भकर्ण, मारीच, मय आदि अनेक बड़े-बड़े विद्याधर भी उनके साथ संसार से विरक्त हो, विषय-कषायों का त्याग करके मुनि हो गये।
रानी मन्दोदरी पहले पति तथा अब पुत्रों के वियोग से अत्यन्त व्याकुल हुई और शोकवश मूर्छित हो गयी। उसे शशिकान्ता नामक आर्यिका ने उपदेश दिया - हे मन्दोदरी ! इस संसार चक्र में जीवों ने अनन्त भव धारण किये हैं। अब तू विलाप करना छोड़ और निश्चलता धारण कर। यह संसार असार है, केवल एक जिनधर्म ही सार है। तू जिनधर्म की आराधना कर और दुःख से निवृत्त हो जा। आर्यिका माताजी आगे कहा -
दुःख और कष्ट ये दोनों एक बात नहीं हैं। दोनों अलग-अलग हैं, दोनों के कारण भी अलग-अलग हैं, कष्ट बाहरी पदार्थों या स्थितियों के सद्भाव अथवा अभाव में होता है, जबकि दुःख एक आन्तरिक घटना है; इसलिये सारे कष्ट मिट जायें, तब भी दुःख नहीं मिटता। कष्ट और दुःख के तल अलग-अलग हैं। कष्ट अनेक प्रकार का है, जबकि दुःख एक ही प्रकार का है। दुःख असुविधा नहीं है। अतः समूची सुविधाएँ मिलने पर भी इस जीव का दुःख दूर नहीं होता। दुःख बाहर से आने वाली कोई चीज नहीं; अपितु अंतरंग से आने वाली है, जबकि कष्ट बाहर से सम्बन्धित है। दुःख अज्ञान है। अतः यदि अन्तःप्रकाश की उपलब्धि हो, तो दुःख मिट सकता है।
दुःख का सम्बन्ध 'पर' में अपनापना मानने से है। अतः वह तब तक नहीं मिटेगा, जब तक अपने आपको पहचानने का सम्यक् पुरुषार्थ करके 'पर' में अपनापना न मिटा दिया जाये। यदि यह जीव स्वर्ग में चला जाए
और इसे सब मनचाही सुविधायें प्राप्त हो जाएँ, तब भी इसका कष्ट तो अवश्य मिट जायेगा; परन्तु दुःख नहीं। अतः हमें पर को अपने सुख का कारण मानना छोड़कर स्वावलम्बन को ही सुख का कारण जानकर उसे अपना कर सदा सुखी होना ही श्रेयष्कर है। जैनकथा संग्रह भाग-४ से साभार