Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 38
________________ 36 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ निर्देश दिया। भोजनशाला में जितनी खाद्य सामग्री थी उसको खा लेने पर उसकी भूख शान्त नहीं हुई। तब तुमने अपने भोजन में से कुछ भोजन उन्हें दे दिया, उसमें से एक ग्रास खाते ही उसका भस्मक रोग तुरन्त ही शान्त हो गया। तब उसने इस उपकार के बदले तुम्हे उद्भट विद्वान बनाने का निर्णय लिया।" इस कथानक को सुनकर जीवन्धर कुमार समझ गये कि यह वृत्तान्त मेरे गुरुवर्य श्री आर्यनन्दी जी का ही है। इसके पश्चात् आर्यनन्दी ने जीवन्धरकुमार को उनके पिता राजा सत्यन्धर, सेठगन्धोत्कट और दुष्ट काष्ठांगार का वास्तविक परिचय दिया। वस्तुस्थिति जानकर जीवन्धरकुमार काष्ठांगार की दुष्टता पर अत्यन्त क्रोधित हुए और काष्ठांगार को मारने के लिये उद्यत हो गये। पर गुरु आर्यनन्दी ने एक वर्ष तक काष्ठांगार को न मारनेरूप गुरुदक्षिणा जीवन्धरकुमार से ली। तथा अपने ऊपर किये गये उपकार का कृतज्ञता पूर्वक बदला चुकाकर अर्थात् जीवन्धर को उद्भट विद्वान बनाकर आर्यनन्दी ने पुनः मुनिदीक्षा धारण की और उसी भव से मोक्ष पधारे। राजपुरी नगरी में ही एक नन्दगोप नाम का ग्वाला रहता था। एक दिन कुछ भीलों ने उसकी गायें रोक लीं। तब दु:खी होकर उसने राजा काष्ठांगार से गायें छुड़ाने के लिये पुकार लगाई। राजा ने अपनी सेना भीलों से गायें वापिस लाने के लिये भेजी, पर जब सेना भी गायें वापिस लाने में समर्थ नहीं हुई तब नन्दगोप ने नगर में घोषणा कराई कि “जो व्यक्ति मेरी गायें छुड़ाकर लायेगा उसे सात सोने की पुतलियाँ पुरस्कार रूप में दूंगा और

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