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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ कुछ समय पश्चात् राजमाता विजया और सुनन्दा ने पद्मा नामक आर्यिका से दीक्षा ग्रहण कर ली और आत्म-साधना करने लगीं। राजा जीवन्धर ने तीस वर्ष तक निर्विघ्न रीति से राज्य किया। उनका प्रजा से पुत्रवत् व्यवहार था। प्रजा अत्यन्त सुखी और प्रसन्न थी। राज्य का कर चुकाना प्रजा को दान देने के समान आनन्दकारी लगता था।
एक समय राजा जीवन्धर बसन्त ऋतु में अपनी आठों रानियों के साथ जलक्रीड़ा करने के पश्चात् उद्यान में विश्राम कर रहे थे। तब वे देखते हैं कि एक बानरी अपने पति बन्दर का अन्य बानरी के साथ सम्पर्क देखकर रुष्ट और अप्रसन्न थी। उस बानरी को प्रसन्न करने के लिये बानर अनेक चेष्टाएँ कर रहा था। बन्दर ने एक कटहल का फल बानरी को देना चाहा, इतने में ही रक्षक माली ने आकर उस फल को छीन लिया। इस घटना
का राजा जीवन्धर पर विशेष प्रभाव पड़ा और उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि कटहल के फल समान राज्य है। मैं माली के समान हूँ और काष्ठांगार बानर के समान है।
बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हुए जीवन्धर ने जिनमन्दिर में जाकर जिनेन्द्र भगवान की पूजन की। वहीं चारण ऋद्धिधारी मुनिराज से धर्मोपदेश सुनने के बाद अपने पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछा।
मुनिराज ने बताया – “तुम पूर्वभव में धातकीखण्ड के भूमितिलक नगर में पवनवेग राजा के यशोधर नाम के पुत्र थे। तुमने वाल्यावस्था में क्रीड़ा करने के लिये हंस के बच्चों को पकड़ लिया था। पिता ने तुम्हें अहिंसाधर्म का स्वरूप समझाया। उसके पश्चात् तुम्हें अपने उस कार्य का
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