Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 19
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 39
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ साथ ही अपनी कन्या का विवाह उसके साथ कर दूंगा।" जीवन्धर ने घोषणा करनेवालों को रोका और स्वयं जंगल में जाकर भीलों से गायें छुड़ा लाये। तदनन्तर नन्दगोप की कन्या का विवाह अपने मित्र पद्मास्य के साथ सम्पन्न करा दिया। राजपुरी नगरी में ही श्रीदत्त नाम के एक वैश्य रहते थे। वे एकबार धन कमाने के उद्देश्य से नौका द्वारा अन्य द्वीप में गये हुए थे। धनार्जन के पश्चात् जब वे वापिस लौट रहे थे, तब भारी वर्षा के कारण जब नौका डूबने लगी, तब श्रीदत्त नौका पर बैठे हुए शोकमग्न व्यक्तियों को समझाते हैं कि यदि आप लोग विपत्ति से डरते हो तो विपत्ति के कारणभूत शोक का परित्याग करो। ___ "हे विज्ञ पुरुषो! शोक करने से विपत्ति नष्ट नहीं होती, बल्कि यह विपत्तियों का ही बुलावा है, विपत्ति से बचने का उपाय निर्भयता है और वह निर्भयता तत्त्वज्ञानियों के ही होती है, अतः तुमको तत्त्वज्ञान प्राप्त करके निर्भय होना चाहिए। तत्त्वज्ञान से ही मनुष्यों को इस लोक व परलोक में सुखों की प्राप्ति होती है।" __ श्रीदत्त आगे कहते हैं कि- “तत्त्वज्ञान अर्थात् वस्तुस्वरूप की यथार्थ समझ एवं स्व-पर भेदविज्ञान और आत्मानुभूति होने पर दुःखोत्पत्ति की हेतुभूत बाह्य वस्तु भी वैराग्योत्पत्ति का कारण बन कर सुखदायक हो जाती है।" श्रीदत्त आत्मसम्बोधन करते हुए अपने आप से कहता है कि – “हे आत्मन् ! जिसप्रकार क्रोध लौकिक और पारलौकिक दोनों सुखों पर पानी फेर देता है, ठीक उसीप्रकार तृष्णा रूपी अग्नि उभय लोक को नष्ट करने वाली है।" इसप्रकार श्रीदत्त तो सम्बोधन करते रहे और नौका अतिवृष्टि के कारण समुद्र में डूब गई ; परन्तु श्रीदत्त स्वयं एक लकड़ी के सहारे किसी देश के किनारे पहुँच गये। वहाँ एक अपरिचित व्यक्ति मिला, वह सेठ श्रीदत्त को किसी बहाने विजयार्ध पर्वत पर ले गया और वहाँ पहुँच कर कहा कि “वास्तव में

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