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जैनधर्म की कहानियाँ भाग १९
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स्वावलम्बन बढ़ाओ !
अनन्तवीर्य केवली से धर्मश्रवण करने के उपरान्त, रामचन्द्र इस प्रकार विचारने लगे - आत्मा का स्वरूप तो निरावलम्बी है, पूर्ण निरावलम्बी हो जाना ही आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता है । इस जीव को जितना 'पर' का अवलम्बन है, उतनी ही इसकी पराधीनता है और उतना ही इसके पास परिग्रह है । परिग्रह का अर्थ ही है, परावलम्बन । भीतर जितनी कमजोरी हीन होती है अथवा सबलता आती है, उतना ही बाहर का अवलम्बन छूटता चला जाता है। वह आंतरिक सबलता अपने निज स्वभाव को ग्रहण करने से ही होती है।
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जीव को पहले यह समझना होगा कि बाहरी अवलम्बन मेरी महानता अथवा बड़प्पन का द्योतक नहीं; अपितु मेरी पराधीनता का ही द्योतक है । वस्तुतः जीव को उस अवस्था को प्राप्त करना है, जहाँ पर कोई भी अवलम्बन न रहे। यह तभी हो सकता है, जब आत्मा अपनी पूर्ण स्वस्थता को प्राप्त हो जाए। बाहरी परिग्रह तो असल में आत्मा की गरीबी को ही बता रहा है। अगर यह भीतर से भरा होता तो बाहर से भरने की इसे जरूरत ही नहीं होती । इसे 'पर' की जरूरत है - यही तो इसकी गरीबी है। जिसकी सारी जरूरतें पूरी हो गयीं अर्थात् जिसकी कोई जरूरत ही नहीं रही, वही अमीर है, वही वैभवशाली है
जरूरत कम कर लेना एक बात है; लेकिन जरूरत न रह जाना बिल्कुल दूसरी तरह की बात है । जितना भी व्यावहारिक आचरण का उपदेश दिया गया है, वह इसीलिये दिया गया है कि व्यक्ति 'पर' के अवलम्बन से हटे । परन्तु यह अधूरी बात है, पूरी बात तब होगी जब वह साथ में स्वावलम्बन को प्राप्त कर उसे बढ़ाता जाए । वास्तव में जितना स्वावलम्बन बढ़ेगा, उतना ही परावलम्बन छूटेगा ।
अगर किसी ने परस्त्री का त्याग किया है, तो उसने संसार की समस्त