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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ फिरते हैं। कहते भी हैं कि अहिंसा के पुजारी हैं। हमारे जैनधर्म में अहिंसा को परमधर्म कहा गया है। तब फिर धूप जलाकर मन्दिर में हिंसा का कार्य करना कहाँ तक उचित है ? यह तो आम आदमी कह सकता है कि यह उचित नहीं है। ___ अग्नि स्वयं भी एकेन्द्रिय जीव है, उसकी हिंसा तथा धूप कैसी है उसका भी ठिकाना नहीं सो उसमें जो जीव हैं उनकी हिंसा हुई तथा धूप
खेने पर धुएँ से अनेक त्रस जीवों का घात हुआ सो वह हिंसा हुई। इसप्रकार तीनप्रकार से हिंसा की। हिंसा पाप है यह तो सर्वविदित ही है। अग्नि में धूप खेने से कर्म तो जल जायेंगे व धर्म हो जायेगा- ऐसा मानने से मिथ्यात्व का बंध हुआ और मिथ्यात्व की पुष्टि हुई, जिससे संसार ही बढ़ा। इतना पाप करते हैं हम धूप को अग्नि में खेने से, जरा विचार करें ? ____ कुछ लोग कह सकते हैं - जब अग्नि जलाने से पाप होता है तो घर पर भी मत जलाओ। परन्तु उनका यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि घर पर तो कई कार्य करते हो तो वे भी सब मन्दिर में करो। यदि घर पर जो कार्य किये जाते हैं वे मन्दिर में किये जावें तो मन्दिर की पवित्रता समाप्त हो जावेगी। घर पर भोजन आदि पकाने के लिए अग्नि की आवश्यकता भी है। बिना प्रयोजन तो किसी भी स्थान पर अग्नि जलाने का निषेध ही किया है। एक बात यह भी है कि अन्य क्षेत्र में किये पाप की निर्जरा धर्मक्षेत्र में हो सकती है, किन्तु धर्मक्षेत्र में किये पाप की निर्जरा कहीं नहीं हो सकती है उनका उदय आता ही है, वह फल अवश्य देता है; क्योंकि वह पाप वज्रलेप हो जाता है। कहा भी है -
अन्यक्षेत्रे कृतं पापं धर्मक्षेत्रे विनश्यति।
धर्मक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति॥ इसीप्रकार मन्दिरों में सोने-चाँदी के वर्क का प्रयोग करना भी एक मिथ्या परम्परा को चलाना व पाप करना है। जो आज हम बिना विचारे ही चलाये जा रहे हैं और समझ रहे हैं कि हम धर्म कर रहे हैं। जबकि इसमें