Book Title: Jain Bhajan Ratnavali
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 6
________________ सच्चिदानंद रूप अपना तो कभी देखा नहीं । हैफ झूठी मूरतों के तू खरीदारी में है ।। २ ॥ 'इनदिनों के भोग दुरूदाई तुझे मार पसंद । , जिसके कारण देख तू दुनिया के वीवारों में है ॥ ३ ॥ मनुष भष जिनराम शासन जैन बुल तुझको मिला। न्याय भगवे मिजावल मर तू होसियारी में है ॥१॥ (राम) इनसभा (ताल) दादरा (सात) थर से यहाँ कौन सुपा लिये माया मुझको। शाग्छ मुद्रा का प्रयू दर्श दिखादो मुझको। कैद दुनिया से दया करके छुड़ा दो मुझको ॥१॥ साख अनादि से भई गति में भ्रमलाई में। मोष मारग में प्रथू एक्लो लगायो हकको ॥२॥ यह करम वैरी भयोथन में सलाते हैं मुभो। धर्म को काटके शिवपुर में पहुंचादो शुभो ॥३॥ मोह सागर में पड़ी धानके नैय्या मेरी। भाप हितकारी हैं हिल करके लंघा दो शुगको ॥४॥ जब तलक मुक्ति न हो अर्ज पही यामत की। दर्श अपना प्रभू भय अंध में दिखादो मुझको ॥५॥

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