Book Title: Jain Bhajan Ratnavali
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 59
________________ ૩ दिन मुहरत देखने की क्या मल जाती रही ॥७॥ खाने जंगी छोड़ विद्या की तरक्की कीजिये, अवती दीगाम्बर स्वेताम्बर की भी शल्य जाती रही ||८|| अन तो कॉलिज को विचारों मिलके आगे के लिये, न्यायमत जाने दो जो कुछ भाज कता जाती रही ||६|| ६. (राग) कुवाली (ताल) कहरया ( वास्त ) साजे दर्दे दिल तुम से मलीहा हो नहीं सकता ॥ प्रभू ऐसा धरम हृदय में मेरे कूट कर भग्दे, न छोडूं गर कोई बदले में दुनिया भी नज़र करदे ||१|| न संशय कोई पैदा हो न दिल दुनिया पे शैदा हो, यकीं साटिका को पवित्र आत्मा करदे ||२॥ न नफरत हो न शिकवा हो न शेवा ऐवजोई का, सरापा ऐव पोशीका हमारे दिल में घर कर ||३|| बखीली न कंजूसी हसद कीना दिला जारी, न दिल में वद गुणानी हो कोई ऐसा असर कर ||४|| प्राणी मात्र का हूं वह दुखियों का शमी हूं, गुणी लोगों का शायक हूं यही सुझमें हुनर करदे ||५||

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