Book Title: Jain Bhajan Ratnavali
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 58
________________ भरत इक धर्म से मिल जायगी दुनियां की सब नैमत पता, है कौनसी शय जो धरम से पा नहीं सकता ॥६॥ (राग) कवाली ( ताल ) सपक ( चाल ) कौन कहता है मुझे मैं नेक प्रतवारी हूँ॥ जैन दल में पात्सल्यता आजकल जाती रही, जोश इमदर्दी मुहब्चन आज कल जानी रही ॥१॥ चल बसी विद्या अविद्या सबके दिल में छा गई, बस नुमायश रह गई लेकिन असल जाती रही ॥२॥ जैन की मदुम शुमारी रात दिन घटने लगी, इसकी अब तादाद बढ़ने की शरुल जानी रही ॥३॥ हैं कहां अकलंक आलिम, पवन सुत से चली, रात दिन की फूट में सबकी अकल जाती रही ॥४॥ दूध घी मिलता नहीं कमज़ोर सारे बन गये. गो कुशी होने से घी मिलने की कल जाती रही ॥५॥ व्यर्थ व्यय करने के तो लाखों दफ्तर खुल गये, जैन कौलिज की मगर-विलकुल मिसल जाती रही ॥६॥ क्यों नहीं खुलता है कौलिज देर है किस बात की,

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