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ज़मीं पर हूं कभी जर्रा फलक पर हूँ कभी मूरज । __ कभी तिफले दबिस्ता हूं कभी पीरे मुगां मैं हूं ॥२॥ न हिन्दू न ईसाई मुसलमां हूं न तरसाई । __ कभी ऊपर ज़मींके कभी जेर आस्मां मैं हूं ॥३॥ तु खुद को कौसरी पहिचानले गर होश है तुझको ।
न गैरों को समझ तू दोस्त तेरा महरवां मैं हूँ ॥४॥
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* इति श्री चौधरी दल्लूराम "कौसरी ' रचित *
॥ भजन समाप्तम् ।।