Book Title: Jain Bhajan Ratnavali
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 40
________________ ३६ बस मैं भूलकर यूं ही फिरा दर२ गदा होकर ॥ २ ॥ कभी रिन्दों में जा बैठा शरावे अर्गवां पीकर | कभी परहेज़गारों में मिला मैं पारसा हो कर ||३|| सरासर मिलगया इकरोज मिट्टी में शवाब उनका । रहा जो पास गैरों के हमारा आशना होकर ॥४॥ था सब जलवा श्रात्माका राम सीता हरी रुकमन । इसी ने सबको दीवाना बनाया दिल रूवा होकर ॥ ५ ॥ अबस तुम कोसरी मरते हो इस मिट्टी के पुतले पे | मिलो दूंगा कभी मिट्टीमे मैं इसको जुदा होकर ॥६॥ ४० (राग) कवाली (ताल) कहरवा (चाख) इलाजे दर्दे दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता । फ़ना कैसी बक़ा कैसी नई पोशाक बदली है । फकत बदला है जिस्म अपना न रूहे पाकबदली है || १॥ वह सबज़ा हूं उगा सौ बार जल २ कर इसी जासे । न अपनी रूह बदली है मगर यह ख़ाक बदली है ॥२॥ , तमाशे रूह के देखो कि क्या २ रंग बदले हैं। कहीं बिजली बनी थमकर कहीं चालाक बदली है ॥ ३॥

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