Book Title: Haimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Author(s): Girijashankar Mayashankar Shastri
Publisher: Girijashankar Mayashankar Shastri
View full book text ________________ 1173 च तेन तदैव स्याद्यदि 'आमो नाम्वा' // 4 // 31 // इति पूर्वसूत्रादाम इति नामिति च पदे तत्रानुवर्तते / तदनुवृत्तिश्चैतन्न्यायादेव न त्वन्यथा, ज्ञापकान्तराभावावात् / तथा 'ऐदौत्संध्यक्षरैः' // 122212 // इत्यत्र ऐत्वमप्यस्य ज्ञापकम् / इदं ह्यनुपसर्गाकारस्यैत्वं 'ऋत्यारुपसर्गस्य // 1 // 29 // इत्यतोऽनुवर्तमानस्योपसर्गाधिकारस्य निवृत्तावेव संभवेत् तन्निवृत्तिश्चैतन्न्यायाधीनैवेत्यादि / अनित्यश्चायम् / यदि सर्वत्राप्यधिकारप्रवृत्तिनिवृत्ती एवमेवापेक्षातः स्यातां तर्हि 'प्रत्यये च' // 1 // 3 // 2 // इत्यत्रोत्तरत्र विकल्पानुवृत्यर्थश्चकारः 'शषसे शषसं वा' // 16 // इत्यत्र च नवाधिकारे वाग्रहणमुत्तर विकल्पानुवृत्त्यर्थ किमर्थ क्रियेत / तेनैवानित्यत्वमस्य ज्ञायते / विशेषातिदिष्टो विधिः प्रकृताधिकारं न बाधते' इत्यपि न्यायो 'मण्डूकप्लुति' न्यायश्चास्यैव प्रपञ्चः // 13 // अर्थवशाद् विभक्तिपरिणामः // 14 // विभक्तेः परिणामः परावर्तः अर्थवशात् क्रियत इत्यर्थः / यथा 'अत आः'०॥४१॥ इत्यतो षष्टयन्तस्याप्यत इति पदस्य 'भिस ऐस्' // 12 // इत्यत्र पश्चम्यन्तत्वेन परिणमनम् / ज्ञापकमस्य 'अव्यञ्जने // 2 // 1 // 35 // इत्यत्र स्थानिनोऽनुपादानम् / अत्र तावदिदंशब्दः स्थानित्वेनेष्टः, यदि च पूर्वसूत्रस्थः षष्ठयन्त एव तत्रानुवर्यंत तदा 'षष्ठयान्त्यस्य' // 74 / 106 // इति परिभाषया इदमो मस्यैवादेशः स्यात् , प्रयोगेषु च संपूर्णस्यैवेदम आदेशो 'दृश्यते', ततश्च 'अद्व्यञ्जने' इत्यत्र प्रथमान्तेनेदंशब्देन स्थानित्वेन भाव्यमेव- सत्यप्येवं यदत्रे सर्वथा स्थानी नोपात्तस्तदेतन्न्यायेन षष्ठयाः प्रथमात्वपरिणमनसंभावनयैव / अयमप्यनित्यः। 'तृतीयस्य पञ्चमे' // 1 // 3 // 1 // इत्यतोऽनुवर्तमानस्य तृतीयस्येति पदस्य पञ्चम्यन्तत्वेन परिणामसंभवेऽपि 'ततो हश्चतुर्थ // 1 // 3 // 3 // इत्यत्र तत इत्युक्तिदर्शनात् // 14 // अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य // 15 // अयमर्थः- अर्थवतः प्रत्ययस्य प्रकृतेर्वा ग्रहणे संभवति सति अनर्थकस्य ग्रहणं न कार्यम्। शब्दसारूप्यादुभयोर्ग्रहणे प्रसक्ते अर्थवत एव ग्रहणमनेन कार्यते / तत्र प्रत्ययस्य यथा-'तीयं ङित्कार्ये वा' // 1414 // इत्यत्र 'द्वेस्तीयः' // 7 / 1 / 165 // इत्यादिविहितसार्थकतीयस्य संभवे जातीयरसंबंध्यनर्थकतीयस्याग्रहणेन पटुजातीयायेत्यादौ 'तीयं ङित्कार्ये वा' इत्यनेन स्मायादयो न भवन्ति / प्रकृतेर्यथा-प्लोहानौ प्लीहानः इत्यादौ च हनो निरर्थकत्वात् 'इनहन्पूषार्यम्णः' // 5 / 4 / 87 // इत्यत्राग्रहणे 'नि दीर्घः' // 1485 // इत्यनेन दीर्घः सिद्धयति / ज्ञापकमस्य 'तृस्वसृनप्तृ० // 14 // 38 // इत्यत्र तृशब्दान्तानामपि नप्त्रादीनां पृथगुपादानम् / तद्धि नत्रादीनामौणादिकतृप्रत्ययान्तानामुणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानीति न्यायादव्युत्पन्नसंज्ञाशब्दत्वेन तृशब्दस्यानर्थकत्वादनेन न्यायेन तृशब्देनाग्रहणं प्राप्स्यतीत्याशंकया कृतम् / यद्यस्य न्यायस्याभावस्तदा तृशब्देनैव नवा
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