Book Title: Haimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Author(s): Girijashankar Mayashankar Shastri
Publisher: Girijashankar Mayashankar Shastri
View full book text ________________ 1205 समासाभावार्थ 'उपमेयं व्याघ्राद्यैः साम्यानुक्तौ' // 3 // 1 // 102 // इत्यत्र साम्यानुक्तिग्रहणम् / तद्धि पुरुषो व्याघ्रः शुरः इत्यादौ यदा व्याघ्रत्वोपचारकारणं शूरत्वमुपन्यस्यते तदा समासवारणार्थ कृतम् / यदि च पुरुषशब्दस्य स्वविशेषणशूरशब्दसापेक्षतया असमर्थत्वात् पूर्वन्यायेनैवात्र समासाभावः सिद्धयेत्तर्हि साम्यानुक्तिग्रहणं किमर्थ क्रियेत। परं पूर्वन्यायबाधकस्यैतन्न्यायस्य सत्त्वेन शूरशब्दसापेक्षस्यापि पुरुषशब्दस्य प्रधानत्वाद् व्याघ्रशब्देन समासोऽनिष्ठोऽपि भविष्यतीत्याशंकया तत्कृतम् / अनित्यत्वमस्य न दृश्यते / पूर्वन्यायस्यापवाद श्वायमुत्तरश्च / अपि च ' किं हि वचनान्न भवति' इति न्यायस्यायमुत्तरश्च प्र. पञ्चीभूतः // 89 // तद्धितीयो भावप्रत्ययः सापेक्षादपि // 90 / / ___यथा काकस्य कृष्णस्य भावः काकस्य कायॆमित्यादौ कृष्णशब्दात्काकशब्दसापेक्षादपि 'पतिराजान्त०' // 71 // 60 // इति ट्यण सिद्धः। ज्ञापकमस्य 'पुरुषहृदयादसमाप्ते' // 717 // इत्यत्र असमासे इति वचनम् / तद्धि परमस्य पुरुषस्य भावः परमपुरुषत्वमित्यादौ 'भावे त्वतल्' // 71 / 55 // इति त्व एव स्यान्न त्वण् इत्येतदर्थमुक्तम् / एतन्न्यायाभावे समासविषयस्य पुरुषशब्दस्य परमशब्दसापेक्षत्वेनासमर्थत्वादेवात्राण न भविष्यतीति किमर्थमसमास इति / अनित्यत्वमस्य नास्ति // 10 // गतिकारकङस्युक्तानां विभक्त्यन्तानामेव कृदन्तैर्विभक्त्युत्पत्तेःमागेव समासः // 91 // यद्यपि 'नाम नाम्नैकार्थ्ये समासो बहुलम् ' // 3 // 1 // 18 // इत्यनेन नाम्नो नाम्ना सह समास उक्तस्तथाऽप्यैकार्थ्ये इत्यनेन समासान्तर्वतिविभक्तिलुप्करणादेवं ज्ञापितं यदुत विभक्त्यन्तानामेव समास इति / ततश्चोभयोरपि पदयोविभक्त्यन्तत्वे प्राप्ते कृदन्तस्योत्तरपदस्याविभक्त्यन्तत्वनियमाऽर्थोऽयं न्यायः। तत्र गतेर्यथा-विकिरति पक्षाविति विष्किरी इत्यादौ पक्ष्यर्थमात्रापेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वात् प्रथममेव 'वौ विष्किरो वा' // 4496 // इति स्लटि विस्स्किर इति स्थिते 'ऊर्याद्यनुकरण" // 3 // 1 // 2 // इति कृतगतिसंज्ञस्य वेः 'नाम्युपान्त्यप्रोकृगृज्ञः कः' // 5 // 1 // 54 // इति कप्रत्ययान्तेन स्किरेत्यनेन सह 'गतिक्वन्य०" // 3 // 1 // 42 // इति तत्पुरुषस्ततो 'असोङसिवूसहस्सटाम्' // 23 // 48 // इत्यनेन स्सटः सस्य षत्वे च विष्किरः पक्षी, ततः स्त्रीत्वविवक्षायामदन्तत्वात् 'जातेरयान्त०' // 4 // 54 // इति ङीः सिद्धः / एतन्न्यायाभावे विभक्त्यन्तेन स्किरेत्यनेन समासे कर्मादिशक्तिसंख्याद्यपेक्षत्वेन बहिरङ्गाया विभक्तरुत्पत्तेः प्रागेव स्त्रीत्वमात्रापेक्षत्वेनान्तरङ्गस्य आपः प्राप्तावदन्तत्वाभावाद् ङोर्न स्यात् / कारकस्य यथा-चर्मणा क्रीयते स्म चर्मक्रीतो इत्यादौ चर्मन् टा क्रीत इति स्थिते चर्मेत्यस्य करणकारकस्य क्रीतेत्यनेन सह 'कारकं कृता' // 3 // 168 // इति तत्पुरुषः / ततः स्त्रीत्वविवक्षायां ' क्रीतात्करणादेः' // शा४ // इत्यनेन क्रीतशब्दाददन्तात् डोः सिद्धः। यदि तु विभक्त्यम्तेन क्रीत इत्यनेन समासः स्थासहि
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