Book Title: Haimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Author(s): Girijashankar Mayashankar Shastri
Publisher: Girijashankar Mayashankar Shastri

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Page 1234
________________ 1221 स्वजे / सेवेस्तु परोक्षायामुभयोरपि सयोः षः स्यात् / यथा परिषिषेवे / चानुकृष्टमित्येव / चेन समुञ्चितं तु यथेच्छमनुवर्तत एव / यथा ‘मो नो म्वोश्च' // 2 // 1 // 67 // इत्यत्र पदान्त इत्यस्य म्वोश्च समुच्चयार्थश्चकारः। ततश्च चेन समुचितं पदान्त इत्येतत्पदं 'संस्ध्वंस्क्वस्स् // 21 // 68 // इत्याद्युत्तरसूत्रेष्वनुवर्तते / अस्य च ज्ञापकं 'स्वञ्जश्च' इति सूत्रवृत्तौ 'चकारः परोक्षायां त्वादेः इत्यस्यानुकर्षणार्थस्ततश्च तस्य पुगेऽननुवृत्तिः सिद्धा' इत्यक्षराणि / अनित्यश्वायम् / तेन 'मारणतोषण.' // 4 / 2 / 30 // इत्यत्र च णिचि च इत्यस्यानुकर्षणार्थ इत्युकेऽपि तस्य पुरोऽनुवृत्तिः सिद्धा // 121 // - चानुकृष्टेन न यथासंख्यम् // 122 // चानुकृष्टं नाम यथासंख्ये अनुपयोगीत्यर्थः / यथासंख्यमनुदेशः समानामित्यस्यापवादोऽयम् / यथा 'वौ व्यञ्जनादेः सन् चायवः' // 4 / 3 / 25 // इत्यत्र क्त्वासनोर्वावित्यनेन सह संख्याया वचननिर्देशस्य च साम्येऽपि यथासंख्यं नास्ति क्त्वश्चानुकृष्टत्वात् / अय्व इति तु न व्याख्यातमत्र; तद्विनापि प्रस्तुतन्यायोदाहरणसिद्धेः। ज्ञापकमस्य यथासंख्यस्य निषेधार्थ यत्नाकरणम्। अयमनित्यश्चापि / तेन 'शक्काहे कृत्याश्च' // 5 // 4 // 35 // इत्यत्र चानुकृष्टसप्तम्या सह शक्ताहयोर्यथासंख्यभङ्गाय बहुवचनम्। नित्यत्वे त्यस्य कृत्यश्चेत्युक्तेऽपि कृत्यसप्तमीभ्यां शक्ताहयोर्यथासंख्यं न प्राप्नोत्येव // 122 // व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिः // 123 // व्याख्यायाः सूत्रतोऽभ्यहितत्वज्ञापनार्थोऽयं न्यायः / यथा करीषगन्धेरपत्यं वृद्धं स्त्री 'ङसोऽपत्ये' // 628 // इत्यणि 'अनार्षे वृद्धे' // 24 // 78 // इत्यनेनाणः व्यादेशे 'अणयेकण् // 24 // 20 // इत्यनेनाणन्तलक्षणो ङीः प्राप्नोति परं न स्यात् / तत्राणः स्वरूपस्थस्य ग्रहणात् इह चाणः ष्यरूपीभवनात् / एतञ्च 'अणनेयेकण्' इत्यत्र व्याख्यानत एव लभ्यते ज्ञापकान्तराभावात् / ततश्च यभवने अदन्तत्वात् 'आत्' // 2418 // इति आपि कारीषगन्ध्या इत्येव स्यात् / ज्ञापकमस्य 'नेमा०' // 14 / 10 // इति सूत्रे तयाययोः प्रत्यययोर्नेमादिनामपङ्क्तौ निःशंकं पठनम् / तद्धि एतन्न्यायात् तयायेति तयायशब्दौ न, किंतु तयायप्रत्ययान्तनामानि लप्स्यन्ते, शेषाणि तु स्वतंत्रनामानीत्याशयैव / अनित्यश्चायमपि / व्याख्यातोऽर्थनैयत्यसिद्धावपि 'शरदः श्राद्धेः कर्मणि' // 6 // 3 // 81 // इत्यत्र कर्मणोति विशेषणोक्तेः। नित्यत्वे त्वस्य 'सृजः श्राद्धे त्रिक्यात्मने तथा // 3 / 4 / 84 // इत्यत्र यथा श्राद्धः श्रद्धावानिति लभ्यते / 'श्राद्धमद्य भुक्तमिकेनौ ' // 7 // 1 // 169 // इत्यत्र तु श्राद्धं पिदैवत्यं कर्मेति; तथा 'शरदः श्राद्धे कर्मणि' इत्यत्रापि श्राद्धशब्देन पितृदेवत्यं कर्म व्याख्यानतो लप्स्यत प्रवेति किमर्थं कर्मणोति विशेषणं प्रयुज्येत // 123 // यत्रान्यत् क्रियापदं न श्रूयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रयुज्यते // 124 //

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