Book Title: Haimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Author(s): Girijashankar Mayashankar Shastri
Publisher: Girijashankar Mayashankar Shastri

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Page 1233
________________ 1220 इति सूत्रस्थो विभक्तलृपो निषेधार्थो नशब्दः पुरः पुरोऽनुवर्तमानो यावत् 'नेसिद्धस्थे' // 3 / 2 / 29 // इति सूत्रस्थद्वितीयना मिलितस्तावता विभक्तिलुपो विधिमेवाह स्म / ज्ञापकमस्य 'न नाम्येक०' इत्यतो विभक्तिलुब्निषेधार्थे नभ्यनुवर्तमानेऽपि विभक्तिलुब्विध्यर्थ 'नेसिद्ध० ' इत्यत्र पुनर्नग्रहणम् / यदि हि द्वितीयेन ना पूर्वनसंबन्धी निषेधरूप एवार्थो दृढोक्रियमाणः स्यात्तदा विभक्तिलुनिषेधार्थे नभ्यनुवर्तमाने सति तल्लुम्विध्यर्थ कथं पुनद्वितीयननं गृलीयात् / यत्तु गृहीतस्तदेतन्न्यायाद् द्वितोयना विध्यर्थभवनसंभावनादेवेति / 'नमो नमस्ते सततं नमो नम' इत्यादौ नमःशब्दादीनामसकृत्प्रयोगे स्वार्थद्रढनमेव दृश्यते / ततो नञोऽपि तथैव प्रसक्ते सति तनिषेधार्थोऽयं न्यायः / इह च द्वाविति समसंख्योपलक्षणम् / तेन चतुःषडादयोऽपि नमो विधिगमका एवेत्यूह्यम्। अनित्यश्वायम्। तेन संभ्रमादौ नमोऽसकृत्प्रयोगेऽपि निषेधार्थतैव / यथा कश्चिद् भुञ्जानो अमुकं परिवेषयामीत्युक्तस्तदनिच्छुः सहसा प्रत्याह न नेति // 119 // चकारो यस्मात्परस्तत्सजातीयमेव समुच्चिनोति // 120 // चस्याविशेषेण समुच्चयमात्रार्थत्वाद् विजातीयस्यापि समुच्चये प्रसक्तेऽयं न्यायः / तत्रोपसर्गादुपसर्ग यथा-'प्रतेश्च वधे' // 4494 // 1 / प्रकृतेः प्रकृति यथा-'एतदश्च व्यञ्जनेऽनग्नसमासे' // 1 // 3 // 47 // 2 / प्रत्ययात् प्रत्ययं यथा'अौं च ' // 14 // 39 // 3 / आदेशादादेशं यथा-' आ च हौ' // 4 // 2101 // 4 // आगमादागमं यथा-' अश्च लौल्ये' // 43 // 115 // 5 / अर्थादर्थ यथा-' अतिरतिक्रमे च' // 3245 // 6 / वाक्यार्थाद् वाक्याथै यथा- तस्य व्याख्याने च ग्रन्थात् ' // 6 // 3 // 142 // 7 / एषु क्रमेणोपादिति, तद इति, घुटीति, इरिति, स्सोन्त इति, पूजायामिति, तत्र भवे इत्येषां समुच्चयः। अस्य च ज्ञापकं पूर्वोक्तेष्वेव 'प्रतेश्च वधे' इत्यादिसूत्रेषु विजातीयसमुच्चयव्यवच्छित्त्यै यत्नाकरणम् / अनित्यता त्वस्य नास्ति / समुच्चिनोतीति वचनाञ्च समुच्चयार्थ एव चकार एवं नियम्यते। अनुकर्षणार्थस्तु विजातीयमप्यनुकर्षति / तथैव चाग्रेतनन्याये उदाहरिष्यते // 120 // चानुकृष्टं नानुवर्तते // 12 // चकारेणानुकृष्टं पदं वाक्यं वाऽग्रेतनसूत्रेषु न याति / अपेक्षातोऽधिकार इति न्यायाश्चानुकृष्टस्याप्यनुवृत्तौ प्रसक्तायां तनिषेधार्थोऽयं न्यायः। तत्र पदं यथा-'गडदवादेः०' // 2177 // इति स्तध्वोश्चेति चेनानुकृष्टं पदान्त इति पदं 'धागस्तथोश्च' // 2 // 178 // इत्युत्तरसूत्रे न याति / वाक्यं यथा-'सदोऽप्रतेः परोक्षायां त्वादेः' // 2 // 3 // 44 // इति सूत्रात्परोक्षायां त्वादेः इत्येतावद्वाक्यं स्वज्धात्वपेक्षया विजातीयमपि सत् ‘स्वञ्जश्व' // 2 / 3 / 45 // इति सूत्रे चेनानुकृष्टमित्यतः 'परिनेवेः सेवः' // 2 // 3 // 46 // इत्युत्तरसूत्रे न याति / तेन स्वजेः परोक्षायां द्वित्वे कृते आदेरेव सस्य षः स्यान्न तु द्वितीयस्य। यथा परिष

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