Book Title: Haimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Author(s): Girijashankar Mayashankar Shastri
Publisher: Girijashankar Mayashankar Shastri
View full book text ________________ 1189 'पुस्पौ' // 33 // इति गुणरूप आदेशः। ज्ञापकमस्य त्वेतदर्थं यत्नाकरणमेव / अस्य. चाप्यनित्यत्वम् / द्वयोः कुलयोरित्यत्र द्विशब्दात् 'अनामस्वरे नोऽन्तः' // 1 // 4 // 64 // इति नागमात्पूर्वमेव 'आद्वेरः' // 2 // 1 // 41 // इत्यदादेशस्य भवनात् // 51 // आगमात्सर्वादेशः // 52 // पूर्वस्यापवादोऽयम् / तेन प्रियतिसृण: कुलादित्यत्र सर्वादेशे तिसरि कृते नागम: सिद्धः / ज्ञापकमस्य 'ऋतो रः स्वरेऽनि' // 21 // 2 // इत्यत्र अनीति नकारविषयकनिषेधोक्तिः। एतन्न्यायाभावे पूर्वन्यायेन स्वरादौ स्यादौ प्रथम नागमस्यैव भवनात् नागमव्यवधानेन च तिस्रादेशस्यैवाप्रसक्तेः कस्य ऋतो रत्वं प्राप्नोतीति रत्वविधौ नकारविषयकनिषेधः क्रियेत / अस्य चोत्तरस्य चानित्यत्वं न दृश्यते // 52 // परान्नित्यम् // 53 // 'स्पर्द्ध' // 74 / 119 // इत्यस्यापवादोऽयम् / यथा युष्मानस्मान् वा आचक्षाणेन युष्या, अस्या / अत्र युष्मदस्मद्भ्यां णिजि 'त्रन्त्यस्वरादेः ' // 74|43 // इत्यद्लुकि विपि 'अप्रयोगीत् // 111137 // इति तल्लुकि 'णेरनिटि' // 4 // 3 // 83 // इति णिज्लुकि टाप्रत्यये पराभ्यामपि त्वमादेशाभ्यां प्रागेव कृताकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यत्वाद् यत्वं सिद्धम् / शापकमस्य तु मा भवानटन्तं प्रायुक्त इति मा भवानटिटदित्यादौ नित्यमपि द्विर्वचनं बाधित्वा अनित्योऽपि प्रागेव 'उपान्त्यस्यासमान०' // 4 // 2 // 35 // इति ह्रस्वः स्यादित्येतदर्थ ओणेऋदित्करणम् / तद्धि मा भवानोणिणदित्यादौ ऋदित्वादुपान्त्यहस्वनिषेधनार्थ क्रियते / यदि तु नित्यत्वात्पूर्वमेव 'स्वरादेद्वितीयः // 414 // इति द्वितीयांशस्य द्वित्वे क्रियमाणे औकारस्यानुपान्त्यत्वादेव ह्रस्वत्वाप्राप्तिरिति किंतन्निषेधार्थ ऋदित्करणम् / सत्यप्येवमिदम् ऋदित्करणं ज्ञापयति यत् सर्वत्र पूर्व ह्रस्व एव प्राप्नोति न तु द्वित्वमिति / तथा च मा भवानटिटदित्यादि सिद्धम् / एतन्यायाभावे तु परत्वादेव ह्रस्वप्राथम्यस्य सिद्धौ पुनस्तज्ज्ञापनार्थम् ओणे;दिकरणं नैव क्रियते / यत्तु कृतं तदेतन्न्यायेन परादपि नित्यस्य बलवत्त्वान्नित्यं द्वित्वमेव प्रथमं भविष्यति नतु अनित्य उपान्त्यह्रस्व इति मा भवानटिटदित्यादीनामसिद्धिरेवेत्याशंकयैव // 53 // नित्यादन्तरङ्गम् // 14 // ___ अनित्यमपीति शेषः। यथा प्रेजुरित्यत्र यजेव॒द् वृदाश्रयं चेति न्यायात् प्रथमं वृति द्वित्वे पदद्वयापेक्षत्वेन बहिरङ्गान्नित्यादप्येत्वात् पूर्वमेवानित्योऽप्येकपदाश्रयत्वेनान्तरङ्गो दीर्घ एव / ज्ञापकमस्य 'आशी:०' // 3 // 3 // 13 // इति सूत्रनिर्देशः / अत्र तावत् सेपे आशिस् इति स्थिते सोरुत्वे विसर्गस्य ‘पदान्ते' // 2 // 164 // इति दीर्घस्य च प्राप्तावेतन्न्यायान्नित्यमपि विसर्ग बाधित्वा पूर्वव्यवस्थितत्वेनान्तरङ्गत्वात् पूर्व दोघे ततो विसर्गः। एतन्न्यायाभावे तु पूर्वन्यायेन
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