Book Title: Haimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Author(s): Girijashankar Mayashankar Shastri
Publisher: Girijashankar Mayashankar Shastri
View full book text ________________ . 1193 // 73 // 66 // इत्यणि तस्य शस्त्रजीविसंघाधिकारस्थत्वेऽपि 'द्रेरण०' इति लुप् / ततश्च 'उतोऽप्राणिनश्चा० // 2 // 4 / 73 // इत्यूङि पर्शः / अनित्यश्चायम् / जृष्धातोरद्यतन्यामजरदित्यादावोख्यातसंबंधिनि 'अदिच्छ्वि०' // 3 // 4 // 65 // इत्यङ्प्रत्यये यथा 'क्रवर्णदृशोऽङि' // 4 // 37 // इति गुणः क्रियते तथा जरणं ज़रा इत्यादौ 'षितोऽङ् // 5 / 3 / 107 // इति कृत्संबंधिन्यङि परेऽपि तस्य विहितत्वात् // 62 // निरनुबन्धग्रहणे सामान्येन // 63 / / सामान्येनेति निरनुबन्धसानुबन्धयोर्ग्रहणमित्यर्थः। विसदृशत्वेन सानुवन्धस्य ग्रहणे अप्राप्तेऽयं न्यायः / तेन स्वः, का, इत्यत्र 'रः पदान्ते विसर्गस्तयोः' // 13 // 53 // इत्यनेन रस्य रोश्च विसर्गः सिद्धः / ज्ञापकमस्य ' अरोः सुपि रः' // 13 // 57 // इत्यत्र रुवर्जनम् / तद्धि 'रः पदान्ते०' इत्यधिकारात् पतन्न्यायेनोभयोरपि तत्र ग्रहणे प्रसक्ते कृतम् / निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इत्यस्यापि न्यायस्य सद्भावादनित्योऽयम् // 63 // साहचर्यात सशस्यैव // 64 // अयमर्थः-अव्यभिचारिणा व्यभिचारी यन्नियम्यते तत् साहचर्यम् / तस्माच्च सदृश एव गृह्यते नत्वसदृशः। इष्टग्रहणसिद्धयर्थोऽयं न्यायः। यथा 'क्त्वातुमम्' // 11 // 35 // इत्यत्र क्त्वातुमोः कृतोः साहचर्यात् अमपि कृदेव गृह्यते न तु द्वितीयैकवचनम् / ज्ञापकमस्याविशेषेणोक्तिरेव / अस्याप्यनित्यत्वम् / 'वत्तस्याम्' // 11 // 34 // इत्यत्र वत्तसिसाहचर्यात्तद्धितस्यैव आमो ग्रहणे न्याय्येऽपि परोक्षाया आमोऽपि ग्रहणात् / तेन उभयोरपि आमोरव्ययसंज्ञाभवनेन यथा किंतरामित्यत्र आमोऽग्रे 'अव्ययस्य' // 3 // 27 // इति सेल्प् भवति तथा पाचयांचक्रुषा इत्यत्र परोक्षाया आमोऽग्रेऽपि टाया लुप् सिद्धा // 64 // वर्णग्रहणे जातिग्रहणम् // 65 // एकवर्णग्रहणे तजातीयानेकस्यापि ग्रहणमित्याशयः / अमुकवर्णस्येकवचननिर्देशे एकस्यैव ग्रहणं प्राप्नोति न द्वयोरित्यतोऽयं न्यायः। यथा 'मुरतोऽनुनासिकस्य' // 4 / 151 // इत्यत्र अनुनासिकस्येत्येकवचननिर्देशेऽपि अनुनासिकजातेर्ग्रहणात् 'रंरम्यते' इत्यादावेकानुनासिकान्ते यथा म्वागमः सिद्धस्तथा हम्मतेर्यङि जंहम्म्यते इत्यादावनुनासिकद्वयान्तत्वेऽपि सिद्धयति / ज्ञापकमस्य जंहम्म्यते इत्यादिसिद्धयर्थ यत्नान्तराकरणम् / अनित्यश्चायम् / क्वचिवर्णग्रहणे जातिग्रहस्य भवनादभवनाच्च। यथा सुपूर्वस्य घिणुङ् ग्रहणे इत्यस्य उदित्वान्नागमे 'तवर्गस्य श्चवर्ग:॥१३॥६०॥ इति तस्य णत्वे घिण्णरूपाद्धातोः 'मन्वन्' // 5 / 1147 // इति वनि 'वन्याङ् पञ्चमस्य' // 4 // 3 // 65 // इत्यत्र पञ्चमजातिग्रहस्य भवने णन्वयस्याप्याङादेशे आङो ङित्वेन गुणाभावे यत्वे च सुध्यावेति रूपम् / जातिग्रहाभवने तु अन्त्यस्यैव णस्य आङादेशे निमित्तनिवृत्तौ नैमित्तिकस्यापि निवृत्तेराद्यणस्य णत्वनिवृत्तौ सुधिनावेत्यपि भवति। अनित्यत्वे ज्ञापकं तु काष्ठतक्षि 150
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