Book Title: Haimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Author(s): Girijashankar Mayashankar Shastri
Publisher: Girijashankar Mayashankar Shastri

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Page 1209
________________ ऽपीत्युक्तिः / नित्यत्वे त्वस्य द्वित्वस्य स्वाङ्गत्वेनाव्यवधायित्वे किमर्थ सा उच्येत // 69 // उपसर्गो न व्यवधायि // 7 // विभक्त्यन्तत्वेन उपसर्गस्यापि पृथक्पदत्वाद् व्यवधायित्वे प्राप्तेऽयं न्यायः। यथा उक्षांप्रचक्रुर्नगरस्य मार्गान् इत्यत्र 'गुरुनाम्यादेः०' // // 4 // 48 // इत्यामादेशे कृते आमन्तस्य कृगश्च प्रेण न व्यवधानम् / अयंभावः-कृभ्वस्तिचानु तदन्तमित्यत्रानुशब्दस्य तावदयमर्थः-व्यवहितो विपर्यस्तो वा कृभ्वस्तीनां प्रयोगो न कार्यः किन्त्वनन्तर एवेति / यदि चात्र प्रेण व्यवधानं स्यात्तदाऽयं प्रयोग एव असाधुः स्यात् / शापकमस्य 'गापोष्टक् ' // 5 / 1 / 74 // इत्यत्र उपसर्गवर्जनम् / तद्धि साम गायतीति टकि सामगो स्त्री इत्यादाविव साम संगायतीति सामसंगायीत्यत्र सोपसर्गाद् गायतेष्टक् मा भूत् किन्तु 'कर्मणोऽण् ' // 5 // 1 // 72 // इत्यणेव स्यादित्येतदर्थम् / एतन्न्यायाभावे 'गायष्टक्' इत्येतावतापि सूत्रेण साम संगायतोत्यत्र समा व्यवधानेन गायः कर्मणः परत्वाभावात् टकः प्राप्तिरेव नेति किमर्थ तत्कुर्यात् / किन्त्वेतन्न्यायसत्त्वेन कर्मगायन्योरुपसर्गेण व्यवधानं न भविष्यतीति साम संगायति स्त्री सामसंगायीत्यत्राऽपि टक्प्राप्त्या सामसंगीत्यनिष्टं मा भूदित्याशंकयैव तत् / अनित्यश्चायम् / समागच्छतीत्यत्र आङा व्यवधानेन 'समो गमृच्छिप्रच्छि' // 3 // 3 // 84 // इत्यात्मनेपदस्य अविहितत्वात् // 7 // येन नाव्यधानं तेन व्यवहितेऽपि स्यात // 71 // ___ यत्र येन वर्णादिना अवश्यव्यवधानं तत्र तयवधानेऽपि तत्कार्यं स्यात् / अप्राप्ते प्रापणार्थोऽयं न्यायः / एवमुत्तरयोरपि / यथा चारू, गुर्वीत्यादौ स्वरोकारयोरेकव्यञ्जनेन व्यवधानवत्त्वेऽपि 'स्वरादुतो गुणादखरोः // 2 / 4 / 35 // इति ङी सिद्धः / स्वरात्परस्य अव्यवहितस्य उतो गुणवाचिष्वसंभवात् / ज्ञापकमस्य 'स्वरादुतः०' इत्यत्रैव स्वरादुत इत्युक्तिः। एतन्न्यायाभावे स्वरात्परस्य अव्यवहितस्य उतः कुत्रापि गुणवाचिध्वसंभवात् स्वरादुत इत्युक्तिय॑थैब स्यात् / तथैवात्र सूत्रे खरुवर्जनमप्यस्य ज्ञापकम् / स्वरात्परो य उकारस्तदन्तानाम्नो ङो स्यादित्युक्ते स्वरोकारयोर्व्यञ्जनेन व्यवधानात् खरुशब्दाद् ङीप्रसङ्ग एव नेति तद्व्यर्थ सत् ज्ञापयतीमं न्यायम् / अनित्यत्वमस्य न दृश्यते // 71 // ___ ऋकारापदिष्टं कार्य लूकारस्यापि // 72 // यथा कृपौङः सनि चिक्लप्सतीत्यत्र निनिमित्तत्वात् प्रथमं 'रललं०' // 2 // 399 // इति ऋत लत्वे द्वित्वे च 'ऋतोऽत् ' // 4 // 1 // 38 // इति लतोऽप्यत् सिद्धः / ज्ञापकमस्य ' दूरादामन्त्र्यस्य० // 7499 // ऋवर्जस्वरस्य प्लुतत्वमुक्त्वापि पुनर्लग्रहणम् / तद्धि ऋनिषेधे एतन्न्यायेन लनिषेधोऽपि मा भूदित्येत दर्थम् / अनित्यश्वायम् / 'ऋलति ह्रस्वो वा' // 1 // 22 // इत्यत्र ऋलतोरुभयोरप्युक्तेः // 72 // .

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