Book Title: Haimbruhatprakriya Mahavyakaranam
Author(s): Girijashankar Mayashankar Shastri
Publisher: Girijashankar Mayashankar Shastri
View full book text ________________ 1192 पति तत्रासौ प्रत्ययरूप एव गृह्यते न त्वप्रत्ययरूप इत्यर्थः। उभयोर्ग्रहणे प्रसक्ते व्यवस्थार्थोऽयं न्यायः / यथा 'कालात्तनतरतमकाले' // 32 // 24 // इत्यत्र तरतमौ प्रत्ययावेव गृह्यते न तु तरति, ताम्यतीत्यचि व्युत्पन्ने नाम्नी / ज्ञापकमस्य तत्तसूत्रे अविशेषेणोक्तिरेव / अस्याप्यनित्यत्वम्। 'स्त्रीदूतः // 14 // 29 // इत्यादौ 'नारी० // 2476 // इत्यादिङीप्रत्ययान्तानामिव तरीत्यादिप्रत्यय रहितानामव्युत्पन्नानामपि ग्रहणात् / अनित्यत्वज्ञापकं तु 'धातोरिवर्ण०' // 2 // 1 // 50 // इत्यत्र साक्षात् प्रत्ययग्रहणम् // 60 // अदाधनदायोरनदादेरेव // 31 // धातोरिति शेषः / ग्रहणमित्यत्रापि संबध्यते / यत्र विवक्षितो धातुरादादिकोऽन्यश्च संभवेत् तत्रान्य एव गृह्यते न त्वादादिकः। यथा 'उपान्वध्याङ्वसः' // 2 / 2 / 29 // इत्यत्र वस्तेर्युदासेन वसतेरेव ग्रहणम् / शापकमस्य 'शासस्हनः शाध्येधिजहि // 4 / 2 / 84 // इत्यत्रास्तेरादादिकग्रहणसिद्धयर्थं शास्हन्साहचर्यबलग्रहणम्। तद्धि एतन्न्यायादसत्यस्यतोर्ग्रहणे प्रसक्ते तद्वारणार्थ कृतम् / अस्याप्यनित्यत्वम् / 'ऋहीघ्राधात्रो० // 4 / 2 / 76 // इत्यत्र भौवादिकस्येव आदादिकस्यापि ऋधातोर्ग्रहणदर्शनात् // 6 // प्राकरणिकामाकरणिकयोः प्राकरणिकस्यैव // 62 // ___ग्रहणमिति योज्यम् / प्रकरणेन चरति प्राकरणिकं-स्वाधिकारोक्तं प्रत्ययादि / अप्राकरणिक-विवक्षितसूत्रापेक्षया अन्याधिकारोक्तम् / तत्रोभयोर्ग्रहणे संभवति स्वाधिकारोक्तमेव प्रत्ययादि गृह्यते नत्वन्याधिकारोक्तमित्यर्थः / तेन 'इज इतः // 2471 // इत्यत्र 'यत्रो डायन् च वा' // 4/67 // इत्यतः प्रारब्धात् तद्धिताधिकारात् तद्धितीय एवेञ् गृह्यते न तु 'प्रश्नाख्याने वे' // 5 / 3 / 119 // इति कृत्सूत्रोक्तः। ततश्च सुतङ्गमेन निर्वृत्ता सौतङ्गमीत्यत्र 'सुतङ्गमादेरिञ्' // 2 // 85 // इतीनि 'इज इतः' इति कीर्भवति न तु 'हे चैत्र कां त्वं कारिमकार्षीः, सर्वां कारिमकार्षम् ' इति कृदिञन्तात् कारिशब्दात् / शापकमस्य 'द्रेरणोऽप्राच्यभगदिः // 6 // 1 // 123 // इत्यत्र 'शकादिभ्यो नेर्लुप्' // 6 / 1 / 120 // इत्यस्मात् द्रावनुवर्तमानेऽपि पुनर्द्रिग्रहणम् / तद्धि एतन्न्यायात् प्राकरणिकस्यैवापत्याधिकारीयस्य द्रेरञणोऽनेन लुप् भविष्यति अस्याप्यपत्याधिकारस्थत्वात् न त्वप्राकरणिकस्य शस्त्रजीविसंघाधिकारीयस्येत्याशङ्कय द्विविधिस्यापि तस्य लुप् स्यादित्येतदर्थं कृतम् / तेन मद्रस्यापत्यं स्त्री 'पुरुमगधकलिङ्ग० // 6 // 116 // इति द्रिसंज्ञेऽणि 'द्रेरञण' // 61 / 123 // इति तल्लुपि प्रत्ययलोपेऽपि तल्लक्षणकार्यविज्ञानात् लुप्तेऽप्यणि अणजेय० // 24 // 20 // इति ङ्यां मद्रो। अत्र यथाऽपत्याधिकारीयस्य द्रेरणो लुप् तथा पशु म काचित् तस्यापत्यानि माणषकाः 'पुरुमगध' इत्यणि 'शकादिभ्य' इति तल्लुपि च पर्शवः, ते शस्त्रजीविसंघः स्त्रीत्वविशिष्टो विवक्षितः-'पर्वादेरण'
Loading... Page Navigation 1 ... 1203 1204 1205 1206 1207 1208 1209 1210 1211 1212 1213 1214 1215 1216 1217 1218 1219 1220 1221 1222 1223 1224 1225 1226 1227 1228 1229 1230 1231 1232 1233 1234 1235 1236 1237 1238 1239 1240 1241 1242 1243 1244 1245 1246 1247 1248 1249 1250 1251 1252 1253 1254