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ज्ञानार्णव
उक्त तथ्योंके प्रकाशमें यह स्पष्ट है कि ज्ञानार्णव योगशास्त्रका रूपान्तर नहीं है किन्तु योगशास्त्र हो ज्ञानार्णवका रूपान्तर है।
योगशास्त्र ( गुजराती ) के उपोद्घातमें श्री गोपालदासजी पटेलने लिखा था-'दोनों ग्रन्थोंका विषयनिरूपण देखते हुए ही लगता है कि हेमचन्द्राचार्यका योगशास्त्र बहुत व्यवस्थित तथा संक्षिप्त है जबकि ज्ञानार्णव शास्त्र ग्रन्थ की अपेक्षा उपदेशग्रन्थ अधिक है। और इस कारण उसका निरूपण जरा शिथिल है। अर्थात् ज्ञानार्णवको ही अधिक व्यवस्थित और संक्षिप्त करके योगशास्त्र रचा गया होगा, ऐसा जान पड़ता है।'
हमें श्री पटेलका उक्त कथन ही यथार्थ प्रतीत होता है। अमितगतिके श्रावकाचारका जितना स्पष्ट प्रभाव हेमचन्द्र के योगशास्त्रपर है उतना ज्ञानार्णवपर नहीं है । अमितगतिने वि. सं.१०५० में सुभाषित रत्नसन्दोह और १०७३ में पंचसंग्रह रचा है। इसी कालमें श्रावकाचार रचा गया है । अतः ज्ञानार्णव भी उसीके आसपास रचा गया होना चाहिए। इस तरह ज्ञानार्णवसे योगशास्त्र अवश्य ही पूर्व में रचा गया है। अस्तु ।
स्व. डॉ. आ. ने. उपाध्येने बड़े श्रमके साथ इस ग्रन्थका सम्पादन किया था। उनके द्वारा लिखित हस्तलिखित प्रतियों के परिचय तथा ज्ञानार्णवके मूल पाठको सुरक्षित और सुव्यवस्थित करनेकी विधिसे उसका स्पष्ट आभास मिलता है। किन्तु खेद है कि वह इसके प्रकाशनसे एक वर्ष पूर्व ही स्वर्गवासी हो गये । वह यदि जीवित रहते तो इसकी प्रस्तावना और सम्पादकीयके रूप में ज्ञानार्णव और योगविषयपर उनका विद्वत्तापूर्ण निबन्ध पढ़ने का लाभ विज्ञ पाठकों को प्राप्त होता ।
डॉ. उपाध्ये ग्रन्थ-सम्पादन कलाके आचार्य थे। उनका विद्यारस प्रगाढ़ था, उनकी दृष्टि बड़ी पैनी, सूक्ष्म और निष्पक्ष थो । अपने सम्पादित ही नहीं, किन्तु सम्पादनमें प्रकाशित होनेवाले प्रत्येक ग्रन्थके प्रति वह जितना श्रम करते थे उतना श्रम करनेवाले आज विरल है। अपने मित्र स्व. डॉ. हीरालाल जी के साथ एकरस होकर जिस निष्ठाके साथ उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला और जीवराज ग्रन्थमालाके द्वारा जैन साहित्यके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थरत्नोंको सम्पादित करके प्रकाशित किया है, उनकी वह निष्ठा अविस्मरणीय है।
___इस ग्रन्थके सम्मादनादिमें उन्हें जिनका सहयोग मिला, उन सबको यथार्थ रोतिसे धन्यवाद तो वे स्वयं ही दे सकते थे। मुझे तो उन सबका ज्ञान भी नहीं है। फिर भी मैं उस स्वर्गीय आत्माकी ओरसे उन सबका आभार मानता हूँ। जिन भण्डारोंसे या व्यक्तियोंसे ज्ञानार्णवकी हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुई, जिनके आधारसे यह बहुमूल्य संस्करण प्रकाशित हो सका, उन सबका आभार मैं सादर स्वीकार करते हुए धन्यवाद देता हूँ। मुनिवर पुण्यविजयजी महाराजकी उदारतासे पाटन भण्डारकी सर्वाधिक प्राचीन प्रतिके फोटू प्राप्त हुए थे। खेद है कि मुनिजी भी स्वर्गवासी हो गये हैं। उनके प्रति मैं विशेष रूपसे श्रद्धानत हूँ।
इस ग्रन्थका अनुवाद तथा प्रस्तावनादि लेखनका कार्य पं. बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीने किया है । अन्य किस-किसने इसमें क्या-क्या योगदान दिया है यह तो डॉ. उपाध्ये ही जानते थे। मैं उन सभीके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
जैन संस्कृति संरक्षक संघके सभापति सेठ लालचन्द हीराचन्द और मन्त्री सेठ बालचन्द देवचन्द शाहकी कार्य तत्परताके कारण ही इस ग्रन्थमालाका कार्य सुचारु रूपसे चाल है। उनके आग्रहवश तथ समन्तभद्रजी महाराजके आदेशवश मुझे अपनी इस वृद्धावस्थामें सम्पादन कार्य स्वीकार करना पड़ा है अतः मैं आचार्य महाराजको नमन करते हुए उक्त दोनों महानुभावोंके प्रति भी आभारी हूँ। भारतीय ज्ञानपीठके सहयोगसे उसके प्रेस में इस ग्रन्थका मुद्रण कार्य हो सका है अतः ज्ञानपीठके व्यवस्थापकों तथा प्रेस-कर्मचारियोंका भी आभारी हूँ। स्याद्वाद महाविद्यालय । वाराणसी
-कैलाशचन्द्र शास्त्री दीपावली-२५०३
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