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प्रधान सम्पादकीय
इसीसे इस प्रतिके परिचयमें डॉ. उपाध्येने लिखा है कि 'प्रतिके देखनेसे लगता है कि काफ़ी प्राचीन प्रतिके आधारपर इसका संशोधन किया गया है, यदि यह माना ही जाता है कि जाहिणीने ज्ञानार्णवकी प्रति लिखाकर उसके रचयिताको भेट की थी तो यह नहीं कहा जा सकता कि ई. १२२७ (वि. सं. १२८४ ) में इस प्रतिके होनेसे पूर्व कितनी पीढ़ियाँ बीत चुकी थीं।'
अतः ग्रन्थकार और जाहणवीं के द्वारा लिखाकर जिसे प्रति दी गयी उसके नामकी साम्यता तथा पाटण की प्रतिके अन्त में लिखे गये उसके लेखनकालको ही जाहणवींके द्वारा भेंट की गयी प्रतिका लेखनकाल समझ लेनेकी भूलोंके कारण ही ज्ञानार्णवका रचनाकाल संवत् १२८४ मान लेनेकी भूल की गयी है अतः उसके आधारपर यह किसी भी तरह नहीं माना जा सकता कि ज्ञानार्णव हेमचन्द्रके योगशास्त्रका रूपान्तर है।
इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य हेमचन्द्र बहश्रत विद्वान होने के साथ प्रतिभाके धनी थे। शास्त्रोंको कोई ऐसी शाखा नहीं है जिसे उन्होंने अपनी कृतिसे अलंकृत न किया हो । साहित्य, काव्य, पुराण, दर्शन, व्याकरण, कोश, संस्कृत, प्राकृत सभी तो उनसे अनुप्राणित है। और इसीसे वे कलिकाल सर्वज्ञ कहे जाते हैं।
किन्तु आलोचकों की दृष्टिमें हेमचन्द्र संग्राहकके रूपमें विशेष महत्त्व रखते हैं। उनका काव्यानुशासन काव्यमीमांसा, काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक आदिका ऋणी है। उनके व्याकरणमें पूर्व व्याकरणोंसे प्रभूत सामग्री ली गयी है। देशीनामलालामें धनपालरचित पाइअलच्छि नाममालाका बहुशः उपयोग किया गया है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितके अन्तर्गत अर्हत्सहस्रनाम जिनसेनके महापुराणके अन्तर्गत रचित जिनसहस्रनामकी ही शब्दशः अनुकृति है। ऐसी स्थिति में उनका योगशास्त्र उनकी इस संग्राहकवृत्तिसे अछूता हो, यह सम्भव प्रतीत नहीं होता।
उसकी रचना चौलुक्य कुमारपालकी अत्यर्थ अभ्यर्थनावश की गयी है। हमें ऐसा लगता है कि उनकी अत्यर्थ अभ्यर्थनासे प्रेरित होकर आचार्य हेमचन्द्रने ज्ञानार्णवको उपजीव्य बनाकर योगशास्त्र रच
ज्ञानार्णवमें तो ग्रन्यकारने जो पद्य अन्य ग्रन्थोंसे लिये हैं उनका 'उक्तं च' करके निर्देश किया है। उनमें तत्त्वार्थ सूत्र, महापुराण, तत्त्वानुशासन, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और सोमदेव उपासकाध्ययन ( यशस्तिलक ) के पद्य भी है। अन्य अनेक श्लोकोंका स्थान खोजा नहीं जा सका है। उनमें कुछ जैनेतर ग्रन्थ भी प्रतीत होते हैं जो योगविषयक हैं। हेमचन्द्रके योगशास्त्रका उत्तरार्ध ही यथार्थमें योगसे सम्बद्ध है। पूर्वार्धकी पृष्ठ संख्या ३४० है किन्तु उत्तरार्ध की ५५ पृष्ठ मात्र हैं। उनमें भी पांचवां प्रकाश बड़ा है और उसमें २५ पृष्ठोंमें प्राणायामका वर्णन है। शेष तीस पृष्ठोंमें ध्यानका वर्णन है। उसमें उद्धृत पद्य अत्यन्त ही विरल है। तीन पद्य हमें मिले और तीनों ही ज्ञानार्णवमें उदधत हैं। ज्ञानार्णवमें उद्धत दो श्लोक ऐसे मिले जिन्हें परिवर्तित करके मूल में मिला लिया गया है । उनमें एक प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है
सूक्ष्म जिनेन्द्रवचनं हेतुभिर्यन्न हन्यते । आज्ञा सिद्धं च तद् ग्राह्यं नान्ययावादिनो जिनाः ।।
यह श्लोक दिगम्बर परम्परा में बहुत प्रसिद्ध है। उसमें जिनेन्द्रवचनंके स्थानमें 'जिनोदितं तत्त्वं' पाठ है । इसका अन्तिम चरण आज्ञाविचय धर्मध्यानके प्रसंगमें सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिक दोनों में है। ज्ञानार्णवमें भी आज्ञाविचयके प्रसंगमें ही यह उद्धृत है। हेमचन्द्राचार्यने भी इसे उसी प्रसंगमें इस प्रकार परिवर्तित किया है
सर्वज्ञवचनं सूक्ष्मं हन्यते यन्न हेतुभिः । तदाज्ञारूपमादेयं न मृषाभाषिणो जिनाः ॥-१०१९
ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त श्लोक श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलित नहीं है इसीसे परिवर्तित करना पड़ा है। क्योंकि ज्ञानार्णव में तो दिगम्बर ग्रन्थोंके भी अनेक उद्धरण हैं किन्तु उनमें से कोई भी योगशास्त्रमें उद्धृत नहीं है, परिवर्तित हो सकता है । अस्तु ।
१. ज्ञानार्णव १९३४. २०२९, २०७६ और योगशास्त्र ९।१४, ८1७९
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