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प्रधान सम्पादकीय
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ध्यान और ज्ञान
यहाँ ध्यान और ज्ञानका भेद भी द्रष्टव्य है। जैन दर्शनमें आत्मामें अनन्तगुण माने गये हैं। किन्तु उनमें अपना और परका बोध करानेवाला एक ज्ञानगुण ही है अतः जैन अध्यात्ममें कहा है
'आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम।'-समयसार कलश आत्मा ज्ञान है। ज्ञानके सम्बन्धसे ज्ञान नहीं है किन्तु स्वयं ज्ञान है। वह जानने के सिवाय अन्य कुछ नहीं करता । करना उसका काम नहीं है मात्र जानना ही उसका काम है। जबतक उसमें कर्तृत्वबुद्धि रहती है तबतक उसकी संसारसे मुक्ति नहीं होती। उसकी कर्तृत्वबुद्धि ही उसकी आकुलताका मूल कारण है। उसमें योग देते हैं उसके मन-वचन-काय । मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति ही, जिसे जैनधर्ममें योग शब्दसे कहा है, क्रोध मान माया और लोभ नामक कषायसे अनुरक्त होकर उसके संसार बन्धनको अनन्त बनाती है । जब उसमें ज्ञानमूलक चारित्रको धारा प्रवाहित होती है तो कषायोंके साथ उक्त योगका भी निरोध होता
। वस्तुतः तभी वह ध्याता बनता है। उसमें प्रवाहित ज्ञानकी धारा ध्यानावस्थामें निश्चल हो जाती है। इसलिए उसे ज्ञानं न कहकर ध्यान कहते हैं। ज्ञानार्णव
सम्भवतया इसोसे आचार्य शुभचन्द्रने अपने इस ध्यानशास्त्रका नाम ज्ञानार्णव रखा है और अन्तिम पुष्पिकाओंमें अपर नाम योगप्रदीपाधिकार दिया है। ध्यानके लिए योगशब्दका चलन जैनपरम्परामें नहीं रहा है। यों तो प्रकरणवश ध्यानका वर्णन आगमिक साहित्य में तथा उत्तरकालीन साहित्यमें मिलता है किन्तु ध्यान पर स्वतंत्र ग्रन्थ कम ही मिलते हैं। अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवार्तिक ( ९।२७ ) में ध्यानका वर्णन करते हुए अन्तमें एक ध्यानप्राभृत नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है किन्तु वह उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरिने एक ध्यानशतकपर टीका रची है। और उस टीकाके साथ वह ध्यानशतक वीर. सं. २४६७ में जामनगरसे मुद्रित हुआ है । उसपर उसे जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण रचित छपा है। किन्तु पं. दलसुखजी मालवणिया-जैसे विद्वान् उसे उनका नहीं मानते। उसे हम ध्यानपर रचा गया प्रथम स्वतन्त्र ग्रन्थ कह सकते हैं । इसमें १०५ गाथाएँ हैं। दूसरी गाथामें स्थिर अध्यवसानको ध्यान और चंचल चित्तको भावना अनुप्रेक्षा तथा चिन्ता शब्दसे कहा है। हरिभद्रसूरिकी टीकासे यह तो स्पष्ट है कि यह उनसे पूर्वका है। इसकी लगभग पचास गाथाएँ षट्खण्डागमकी धवला टीका (पु. १३, पृ. ६४-८७ ) में उद्धृत हैं। इसमें भी चारों ध्यानोंका कथन है।
हरिभद्रसूरिने योगपर कुछ ग्रन्थ रचे हैं। किन्तु दिगम्बर परम्परामें तत्त्वानुशासनके पश्चात् ध्यानपर उपलब्ध ग्रन्थ एक ज्ञानार्णव ही है। ज्ञानार्णवके पश्चात भास्करनन्दिने एक ध्यानस्तव रचा है जिसमें १०० श्लोक हैं । अतः ज्ञानार्णव अपने विषयका एक विस्तृत ग्रन्थ है। इसमें ध्यानके अंगभूत ऐसे विषयोंकी भी चर्चा है जिसका वर्णन उससे पूर्वके जैन साहित्य में नहीं है।
जैन परम्परामें ध्यानके आर्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल ये चार भेद ही प्राचीनकालसे मान्य रहे हैं। किन्तु दिगम्बर परम्परामें योगसार ( ९८ ) में ही सर्वप्रथम पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंका उल्लेख मात्र मिलता है। परमात्मप्रकाश ( पृ ६) और बृहद्रव्यसंग्रहकी टीका ( गा. ४८) में टीकाकार
श्लोक उद्धृत किया है जिसमें इन चारोंका स्वरूप कहा है । वि. सं. १०८६ में रचे गये ज्ञान सारमें धर्मध्यानके भेदोंमें पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ भेद गिनाकर तीनोंका वर्णन किया है।
किन्तु सर्वप्रथम ज्ञानार्णवमें ही इन ध्यानोंका वर्णन विस्तारसे मिलता है। श्वेताम्बर परम्पराके
१. ज्ञानमेवापरिस्पन्दाग्निशिखावदवभासमानं ध्यानमिति । -सर्वार्थ., तत्त्वार्थवार्तिक ९।२७ । २. झाएह तिप्पयारं अरुहं कम्मिधणाण णिहणं । पिण्डत्थं च पयत्थं रूवत्थं गुरुपसाएण ॥१८॥
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