Book Title: Granth Pariksha Part 03 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay View full book textPage 9
________________ भगवान की प्रतिमाका स्पर्श कैसे कर सकते हो ! और यह तो अभी कुछ ही वर्षोंकी बात है जब मारकोंके कर्मचारी श्रावकोंसे मारमारकर अपना टैक्स वसूल करते थे तथा जो श्रावक उनका वार्षिक टैक्स नहीं देता था, वह बँधवा दिया जाता था । इम आज भले ही इस बातको महसूस न कर सकें; परन्तु एक समय था, जब समूचा दिगम्बर जैन समान इन शिमिलाचारी साथ ही अत्याचारी पोपोंकी पीडित प्रभा था और इन पोपोके सिंहासनको उलट देनेवाला यही शक्तिशाली तेरहपन्थ था। यह इसीकी कृपाका फल है, जो आम हम इतनी स्वाधीनताके साथ धर्मचर्चा करते हुए नजर भा रहे हैं। तेरहपन्यने महारकों या महन्तोंकी पूजा-प्रतिष्ठा और सत्ताको तो नष्टप्राय करदिया; परन्तु उनका साहित्य अब भी जीवित है और उसमें वास्तविक धर्मको विकृत कर देनेवाले तत्व मौजूद है। यद्यपि तेरहपन्थी विद्वानोंने अपने भापामन्योंके द्वारा और श्रामग्राम नगर नगर में स्थापित की हुई शानसभाओ कि द्वारा लोगोंको इतना सजग और सावधान अवश्य कर दिया है कि अब वे शिथिलाचार की बातोंको सहसा मानने के लिए तैयार नहीं होते हैं और वे यह भी जानते हैं कि भेपी पाखण्डियन वास्तविक धर्मको बहुतसी मिथ्यात्वपोषक वातोंसे भर दिया है; फिर भी संस्कृत ग्रन्थोंके और अपने पूर्वकालीन बड़े बड़े झुनि तथा आचायोंके नामसे वे अब भी उगाये आते हैं। बेचारे सरक प्रकृतिके लोग इस बातकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि धूर्त लोग आचार्य भद्रबाहु, कुन्दकन्द, उमास्वाति, भगवन्दिनसेन आदि बड़े बड़े पूज्य मुनिराजोंके नामसे भी अन्य बनाकर प्रचलित कर सकते हैं! उन्हें नहीं मालूम है कि संस्कृतमें जिस तरह सत्य और महान् सिद्धान्त लिखे जा सकते हैं, उसी तरह असत्य और पापकथायें भी रची जा सकती है। अतएव इस ओरसे सर्वया निश्चिन्त न होना चाहिए। लोगोंको इस संस्कृतभक्ति और नाममकिसे सावधान रखनेके लिए और उनमें परीक्षाप्रधानताको भावनाको ढ बनाये रखनेके लिए अब भी आवश्यकता है कि तेरहपन्यके उस मिशनको बारी रक्खा जाय जिसने भगवान् महावीरके धर्मको विशुद्ध बनाये रखनेके लिए अब तक निःसीम परिश्रम किया है। हमें सुहृदर पण्डित जुगल किशोरजी मुख्तारका चिर कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने अपनी 'प्रन्य-परीक्षा' नामक लेखमाला और दूसरे समर्थ लेखोंद्वारा इस मिशनको बराबर बारी रक्खा है और उनके अनवरत परिश्रमने भट्टारकोकी गद्दियोंके समान उनके साहित्यके सिंहासनको भी उलट देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। गमम १९ वर्षके बाद 'प्रन्वपरीक्षा' का यह तृतीय भाग प्रकाशित हो रहा है जिसका परिचय करानेके लिए मैं ये पतियाँ लिख रहा हूँ। पिछले दो भागोंकीPage Navigation
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