Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 8
________________ नामसे प्रसिद्ध हुआ है। इस पन्थने और इसके भनुयायी पं० ठोकरमानी, पं०:जयव न्दवी, पं० दौलतरामजी, पं. सदासुखजी, पं० पक्षालालजी धूनीवाले आदि विद्वानोंने जो साहित्य निर्माण किया और जिस शुखमार्गका प्रतिपादन किया, उसने दिगम्बरसम्धदायमें एक बड़ी भारी क्रान्ति कर डाली और उस क्रान्तिका प्रभाव इतना वेगशाली हुआ कि उससे जैनधर्मके शिथिलाचारी महन्तों या भधारकोंक स्थायी समझे जानेवाले सिंहासन देखते देखते धराशायी हो गये और कई सौ वषोंसे बो धर्मके एकच्छाधारी समाद बन रहे थे, वे अप्रतिष्ठाके गहरे गमें फेंक दिये गये। भाटारकोंका उच्च विकृत मार्य कितना पुराना है, इसका अनुमान पण्डितप्रवर माशाघरद्वारा उद्धत इस पचनसे होता है पण्डितम्रचारिक घठरैश्चतपोधनः। शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ अर्थात् अचरित्र पण्डितों और कर साधुओं या भधारकोंने जिन भगवानका निर्मख शासन मलीन कर डाला। पं० माशापरजी विक्रमकी वेहवी शताब्दिके अन्तमें मौजूद थे और उन्होंने इस लोकको किसी अन्य मन्यसे उसत किया है। अर्थात इससे भी बहुत पहले भगवान् महावीरके शासनमें अनेक विकृतियों पैठ गई थी। रहपन्यके पूर्वोक मिक्षनने जैनधर्मकी विकृतियोंको हटाने और उसके शुख स्वल्पको प्रकट करने में जो प्रशंसनीय व्योग किया है, यह चिरस्मरणीय रहेगा । यदि इसका उदय न हुआ होता, तो भान दिगम्बर जैनसमानकी क्या दुर्दशा होती, उसकी कल्पना भी नहीं हो सकती है। बागल प्रान्तम दौरा करनेवाले बम्बई जैन प्रान्तिक समाके एक उपदेशकने कोई १०-१२ वर्ष हुए मुझसे कहा था कि कुछ समय पहले वहाँके श्रावक शाबस्वाध्याय मादि तो क्या करेंगे, उन्हें बिन भगवानकी मूर्तिका अभिषेक और प्रक्षाल करनेका मी अधिकार नहीं पा! मारकणीके शिष्य पण्डितजी ही जब कभी आते थे, यह पुण्यकार्य करते थे और अपनी दक्षिणा लेकर चले जाते थे। कहते थे, उम बाल पोषाले मनमचारी झोप सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर साधु श्रीमेषविषयजी महोपाध्यायने अपना 'युधिप्रबोध' मामका प्राकृत अन्य स्वोपन सेकसटीकासहित इस 'पापारसीय ' मतके खमनके लिए ही विक्रमी भारहवीं शताब्दिके प्रारममै पनाया था-"पोच्छ मुयणहितत्थं पाणारसियरस मयमेयं ।'-मुलबोंके हितार्थ पाणारसी मतका मेद कहता है। इस प्रन्थमै इस मतकी उत्पत्तिका समय विक्रम संवत् १९८० प्रकट किया है। यथा सिरिविक्कमनरनाहागपार्ह सोलहसपाहि पाहिं।. असि उत्तरोई जाय वाणारसिअस मयमेयं ॥१८॥

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