Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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गया | महारानी विजयादेवी के गर्भ के दिनों में महाराजा के साथ पासे के खेल में सदा महारानी की विजय होती थी इस जीत को गर्भ का प्रभाव मानकर बालक का नाम अजित कुमार एवं युवराज्ञी के पुत्र का नाम सगर रखा गया ।
युवा काल में दोनों राजकुमारों का विवाह हुआ। अवसर पाकर महाराजा जितशत्रु ने अजितकुमार का राज्याभिषेक किया और सगर को युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया महाराजा जितशत्रु ने भगवान श्री ऋषभदेव की परम्परा के स्थविरों के पास प्रव्रज्या ग्रहण की और विशुद्ध चारित्र की आराधना करके केवलज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त किया और वे मोक्ष में गये ।
महाराजा अजितकुमार ने तिरपन्न लाख पूर्व तक राज्य का संचालन करने के बाद प्रवज्या लेने का निश्चय किया । भगवान के दीक्षा समय को निकट जान लोकान्तिक देवों ने भगवान से निवेदन किया
हे भगवन् ! बुझौ ! हे लोकनाथ ! जीवों के हित सुख और मुक्ति दायक धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करो
भगवान श्री अजितनाथ ने एक वर्ष तक नित्य प्रातः काल एक करोड आठ लाख सुवर्णमुद्रा के हिसाब से तीन अरब अठासी करोड अस्सीलाख स्वर्णमुद्राओं का दान दिया वर्षीदान देने के पश्चात् माघ शुक्ला नवमी के दिन 'सुप्रभा' नामकी शिविका में आरूढ हो कर नगर के बाहर सहसाम्रनामक उद्यान में बडे उत्सव के साथ पधारे । दिवस के पिछले प्रहर में जब चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में आया तब भगवान ने सम्पूर्ण वस्त्रालंकार उतार दिये और इन्द्र द्वारा दिये गये देवदूष्य वस्त्र को धारण कर पंचमुष्ठि लोचन किया और सिद्ध भगवान को नमस्कार करके सामायिक चारित्र को ग्रहण किया। उस दिन भगवान के छठ का तप था | सामायिक चारित्र स्वीकार करते समय भगवान अप्रमत्तगुणस्थान में स्थित थे। भावों की उच्चतम अवस्था के कारण उसी समय भगवान को मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ । भगवान के साथ एक सहस्त्र राजाओं ने भी दीक्षा धारण की दीक्षा के पश्चात् भगवान ने अन्यत्र विहार कर दिया ।
दूसरे दिन श्रीअजितनाथ भगवान ने वेले का पारणा ब्रह्मदत्त राजा के घर अयोध्या में परमान्न से "किया । बारह वर्ष छद्मस्थकाल में विचरने के बाद अयोध्या नगर के बाहर सहसाम्र नाम उद्यान में पधारे । उस दिन भगवान को छठ का तप था । पौषशुक्ला एकादशी के दिन शुक्लध्यान की परमोच्च अवस्था में आपने केवलशान और केवल बाद देवोने समवशरण की रचना की महाराज सगर भी समवशरण में परीषद् में भगवान ने देशना दी । भगवान की देशना सुन कर स्वीकार किया जिनमें गणधर पद के अधिकारी सिंहसेन आदि ९५ और गणधर पद प्राप्त किया। भगवान ने चार तीर्थ की स्थापना की सहसाम्र उद्यान से विहार कर भगवान 'शालिग्राम' पधारे। वहां शुद्धभट और उसकी पत्नी सुलक्षणा ने भगवान के पास प्रव्रज्या ग्रहण की ।
दर्शन प्राप्त किया। केवलज्ञान के पहुँचे । बारह प्रकार की भव्य । हजारों नर नारियों ने त्याग मार्ग महापुरुषों ने दीक्षा ग्रहण की
।
भगवान श्री अजितनाथ के ९५ गणधर थे । एक लाख साधु, तीनलाख तीस हजार साध्वियाँ सत्ताईस सौ बीस चौदह पूर्वधारी बारह हजार पांच सौ पांच मनः पर्ययज्ञानी, बाईससौ केवली, बारह हजार चारसो वैब्धधारी । दो लाख अठ्यानु हजार श्रावक एवं पांच लाख पैतालीस हजार श्राविकाएँ थी ।
दीक्षा के बाद एक पूर्वाग कम लाख पूर्व बीतने पर अपना निर्वाणकाल समीप जानकर भगवान समेत
शिखर पर जंगलमें पधारे वहाँ एक हजार मुनियों के साथ एक मास के अनशन के अन्तमें चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन मृगशिर नक्षत्र में भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया । इन्द्रादि ने निर्वाण उत्सव मनाया । भगवान की उंचाई ४५० धनुष थी भगवानने अठारहलाख पूर्व कुमार अवस्था में त्रेपनलाखपूर्व चोरासी लाख वर्ष राज्यत्वकाल में बारहवर्ष छद्मस्थ अवस्था में चोरासीलाल बारहवर्ष कम एक लाख पूर्व केवल
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