Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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इस अवसर्पिणी काल में भगवान सर्वप्रथम मुनि थे । इससे पहले किसी ने भी संयम नहीं लिया था । इस कारण सभी जनता मुनियों के आचार विचार, दान आदि की विधि से विलकुल अनभिज्ञ थी । जब भगवान भिक्षा के लिए जाते तो लोग हर्षित होकर वस्त्र, आभूषण, हाथी, घोड़े स्त्री आदि लेने के लिए आमन्त्रित करते किन्तु शुद्ध मर्यादा युक्त और एषनीक आहार पानी कही से भी नहीं मिलता । भूख
और प्यास से व्याकुल हो कर भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले चार हजार मुनि वर तो अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने लग गये ।
__ एक वर्ष बीत गया किन्तु भगवान को कही भी शुद्ध आहारपानी नहीं मिला । विचरते विचरते भगवान हस्तिनापुर पधारे । वहां के राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार के हाथों से इक्षुरस द्वारा भगवान का पारणा हुआ । देवों ने पांच दिव्य प्रकट करके दान का महात्म्य बताया। भगवान का पारणा हुआ जानकर सभी लोगों को बडा हर्ष हुआ । लोग तभी से मुनी दान की विधि समझने लगे । वह दिन अक्षय तृतीया के नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
छद्मस्थ अवस्था में विचरते हुए भगवान को एक हजारवर्ष व्यतीत हो गये । एक समय वे पुरिमताल नगर के शकटमुख उद्यान में पधारे । फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन भगवान तेले का तप करके वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में स्थित हुए । उत्तरोत्तर परिणामों को शुद्धता के कारण चार घाती कर्मो का क्षय करके भगवान ने केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त किया । देवों ने केवलज्ञान महोत्सव करके समवशरण की रचना की । देव, देवी, मनुष्य स्त्री आदि बाहर प्रकार की परिषद् प्रभु का दिव्य उपदेश सुनने के लिए एकत्रित हुई ।
दीक्षा लेकर जब से भगवान विनीता नगरी से विहार कर गये थे तभी से माता मरुदेवी अपने पुत्र के कुशल समाचार प्राप्त न होने के कारण बहुत चिन्तातुर होरही थी। इसी समय भरत महाराज उनके चरण वन्दन के लिए गये । वह उनसे भगवान के विषय में पूछ ही रही थी कि इतने में एक पुरुष ने आकर भरत महाराज को "भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है" यह वधाई दी । उसी समय दूसरे ने आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होने की और तीसरे ने पुत्रजन्म की वधाई दी । सब से पहले केवलज्ञान महोत्सव मनाने का निश्चय करके भरत महाराज भगवान को वन्दन करने के लिए रवाना
ए, हाथी पर सवार हो कर मरुदेवी माता भी साथ पधारी । जब समवशरण के नजदीक पहँचने पर देवों का आगमन केवलज्ञान के साथ प्रकट होनेवाले अष्ट महाप्रातिहााँदि विभूति को देख कर माता मरुदेवी को बहुत हर्ष प्राप्त हुआ । वह मन ही मन विचार करने लगी कि मैं तो समझती थी कि मेरा ऋषभकुमार जंगल में गया है, इससे उसको तकलीफ होगी परन्तु में देख रही हू । कि ऋषभ कुमार तो बडे आनंद में है और उसके पास तो बहुत ठाट लगा हुआ है मैं वृथा हि मोह कर रही हू । इस प्रकार अध्यवसायों की शुद्धि से माता मरुदेवी ने घाती कर्मो का क्षय कर केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त किया उसो समय आयुकर्म भी क्षीण हो चुका था अतः हाथी के हौदे पर बैठे बैठे ही उन्होने सर्व कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लिया !
___ भरत महाराज भगवान को वन्दना कर समवशरण में बैठ गये । भगवान ने उपदेश दिया । भगवान का उपदेश श्रवण कर भरत महाराज के पांच सौ पुत्रों और सातसौ पौत्रों के साथ ऋषभ सेन ने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की । भरत महाराजा की बहिन ब्राह्नी ने भी अनेक स्त्रियों के साथ दीक्षा ग्रहण की अनेक श्रोताओं ने श्रावक व्रत ग्रहण किये । चतुर्विध संघ की स्थापना हुई । ऋषभसेन आदि ८४ पुरुषों ने गणधर पद प्राप्त कर द्वादशाङ्गी की दिव्य रचना की ।
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