Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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___ इन स्वप्नों को देख कर मरुदेवी तत्काल जाग उठी । अपने देखे हुए महास्वप्नों का चिन्तन कर हर्षित होती हुई माता मरुदेवी अपने पति कुलकर श्री नाभिराजा के पास गई । और उन्हें अपने देखे हुए महास्वप्न सुनाए । स्वप्नों को सुन कर नाभि कुलकर को बहुत प्रसन्नता हुई । उन्होंने कहा-भद्रे ! इन महान् स्वप्नों के प्रभाव से तुम एक महान भाग्यवान पुत्र को जन्म दोगी । इस बात को सुनकर महारानी को
सन्नता हुई । नौ मास और साढे सात रात्रि व्यतीत होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि में उत्तराषाढा नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर मरुदेवी ने त्रिलोकपूज्य पुत्र को जन्म दिया। तीर्थकर का जन्म हुआ जान कर छप्पन दिपकुमारियाँ और शक्रेन्द्र माता मरुदेवी की सेवा में उपस्थित हुए । पुत्रको मेरुपर्वत पर लेजा कर चौसठ इन्द्रों ने भगवान का जन्म कल्याण किया ।
भगवान श्री ऋषभदेव के युवा होने पर उस समय की पद्धति के अनुसार सुमंगला नामक कन्या के साथ ऋषभ कुमार का सांसारिक सम्बन्ध हुआ । समय की विषमता के कारण एक युगल (पुत्र कन्या के जोड़े) में से पुरुष की अल्पवय में ही मृत्यु हो गई। उस असहाय कुवारी कन्या का विवाह श्री ऋषभ कृमार के साथ कर दिया गया । यहीं से विवाह पद्धति प्रारम्भ हुई । दोनों पत्नियों के साथ ऋषभकुमार आनन्द पूर्वक समय बिताने लगे । देवी सुमंगला के उदर से क्रमशः एक पुत्र और एक पुत्री हुई । पुत्र का नाम भरत और पुत्री का नाम ब्राम्ही रखा । इसके अतिरिक्त ४९ युगल पुत्र उत्पन्न हुए । देवी सुनन्दा के उदर से एक बाहुबल नामक पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री उत्पन्न हुई ।
समय की विषमता के कारण अब कल्पवृक्ष फल रहित होने लग गये । लोग भूखे मरने लगे और हा हा कार मच गया । इस समय ऋषभदेव की आयु बीस लाख पूर्व की हो चुकी थी । इन्द्रादि देवों ने आकर ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया। राजसिंहासन पर बैठते ही महाराजा ऋषभदेव ने भूख से पीडित लोगों का दुःख दूर करने का निश्चय किया उन्होंने लोकों को विद्या और कला सिखलाकर परावलम्बी से स्वावलम्बी बनाया और लोंकनीति का प्रादुर्भाव कर अकर्म भूमि को कर्म भूमि के रूप में परिणत कर दिया । इससे लोगों का दुःख दूर हो गया । वे सुख पूर्वक रहने लगे । भगवान ने वेसठ लाख पूर्व राज्यकाल में व्यतीत किये।
एक दिन भगवान को विचार आया--मैंने लौकिक नीति का प्रचारतो किया किन्तु इसके साथ यदि धर्म नीति का प्रचार न किया गया तो लोग संसार में ही फसे रह कर दुर्गति के अधिकारी बनेंगे, इसलिए अब लोगों को धर्म से परिचित करना चाहिए । इसी समय ऋषभदेव के भोगावली कर्मो का क्षय हुआ जान कर लोकान्तिक देवों ने आकर उनसे धर्म तीर्थ प्रवर्ताने की प्रार्थना की । अपने विचार एवं देवों की प्रार्थना के अनुसार भगवान ने वार्षिक दान देना आरंभ किया । प्रतिदिन एक प्रहर दिन चढने तक एक करोड आठ लाख स्वर्णमुद्रा दान देने लगे । इस प्रकार एक वर्ष तक दान देते रहे । इसके पश्चात् अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को विनीता नगरी का और निन्यानवें पुत्रों को अलग अलग नगरों का राज्य दे दिया । माता मरुदेवी की आज्ञा लेकर वे विनीता नगरी के बाहर सिद्धार्थ बाग में पधारे । अपने हाथों से ही अपने कोमल केशों का लुंचन किया किन्तु इन्द्र की प्रार्थना पर शिखा रहने दी । भगवान ने स्वयमेव दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवों ने बड़े हर्श से भगवान का दीक्षा कल्याण मनाया । दीक्षा लेते ही भगवान को मनः पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गयो । भगवान के साथ चार हजार पुरुषों ने दीक्षा धारण की।
दीक्षा लेकर भगवान वन की ओर पधारने लगे, तब मरुदेवी माता उन्हें वापिस महल चलने के लिये कहने लगी । जब भगवान वापिस न मुड़े तब वह बडी चिन्ता में पड गई । अन्त में इन्द्रने माता मरुदेवी को समझाबुझा कर अपने घर भेजी और भगवान वन की ओर विहार कर गये।
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