Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Author(s): Rupendra Kumar
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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राजा राज्य करते थे । उनके धारिणी नाम की रानी थी। बारहवें देवलोक का आयुष्य समाप्त करके जीवानन्द वैद्य का जीव धारिणी रानी के गर्म में आया। उसी रात में रानी ने चौदह महास्वप्न देखे । महाराज वज्रसेन के पास जाकर रानी ने अपने देखे हुए स्वप्न सुनाये । उन्हें सुनकर महाराजा को बडी प्रसन्नता हुई । उन्होंने रानी को स्वप्नों का फल बतला कर कहा कि तुम चक्रवर्ती पुत्र को प्रसव करोगी। महाराजा द्वारा कहा गया अपने स्वप्नों का फल सुनकर वह बहुत हर्षित हुई । यतना पूर्वक वह अपने गर्म का सुखपूर्वक पालन करने लगी। समय पूर्ण होनेपर रानी ने सर्वलक्षण सम्पन्न पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम वज्रनाभ रक्खा गया । जीवानन्द के शेष पाँच मित्र भी देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर रानी धारिणी की कुक्षि से उत्पन्न हुए वे वज्रनाभ के छोटे भाई हुए।
महाराज वज्रसेन तीर्थंकर थे । इसलिये लोकान्तिक देवोंने उनसे तीर्थ प्रवर्ताने की प्रार्थना की । अपने भोगावली कर्मों का क्षय हुआ जानकर महाराजा वज्रसेन ने अपने पुत्र वज्रनाभ को राज सिंहासन पर बैठा कर दीक्षा ले ली । घाती कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन किया । और चार तीर्थ की स्थापना की। ___पिता के दीक्षित होने पर राज्य को वज्रनाभ ने संभालिया । उनकी आयुध शाला में चक्र रत्न की उत्पत्ति हुई । चक्र रत्न की सहायता से बज्रनाभ ने भारत के छहोखण्ड पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । वह चौदह रत्न और नो निधि का स्वामी बना । वज्रनाभ के चक्रवर्ती बनने के बाद उनके छोटे भाई बाहु, सुबाहु पीठ और महापीठ मांडलिक राजा बने । सुयशा चक्रवर्ती का सारथी वना ।
___ कुछ समय के बाद चक्रवर्ती वज्रनाभ को तीर्थकर वज्रसेन का उपदेश सुनकर वैराग्य उत्पन्न हो गया उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौपकर भगवान वज्रसेन समीप प्रव्रज्या ग्रहण की । साथ में बाहु, सुबाहु, पीठ महापीठ और सुयशा ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की । ये छहों दीक्षा ग्रहण कर कठोर तप करने लगे । ___मुनि वज्रनाभ ने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य स्थविर बहुश्रुत, तपस्वी और जिन प्रवचन का गुण गान सेवा, भक्ति आदि तीर्थकर के पद के योग्य बीस स्थानों की वारंवार आराधना करके उत्कृष्ट भावों द्वारा तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया ।
इन छहों मुनिराजों ने निरतिचार पूर्वक चौदह लाख वर्ष तक चारित्र का पालन किया । वज्रनाभ मुनि की कुल ८४ लाख पूर्व की आयु थी। जिन में तीस लाख पूर्व कुमारावस्था में सोलह लाख पूर्व मांडलिक अवस्था में २४ लाखपूर्व चक्रवर्ती पद में एवं १४ लाख पूर्व श्रामण्य अवस्था में व्यतीत किये ।
अपनी अन्तिम अवस्था में इन छहों मुनि राजों ने पादोपगमन अनशन ग्रहण किया और समाधि पूर्वक देहको त्याग कर मुनिराज तैतीस सागरोपम की उत्कृष्ट आयुवाले सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव बने ।
भगवान ऋषभदेव का जन्मः
गत चौवीसी के २४ वें तीर्थंकर सम्प्रति के निर्वाण के बाद अठारह कोटा कोटी सागरोपम के बीतने पर इस अवसर्षिणी काला के तीसरे आरे के चौरासी लाख पूर्व और नवासी पक्ष अर्थात् तीनवर्ष साढे आठ महिने बाकी रहे थे तब आषाढ महिने की कृष्ण चतुर्दशी के दिन उत्तराषाढा नक्षत्र में चन्द्र का योंग होते ही वज्रनाभ का जीव तैतिस सागरोपम का आयु भोग कर सर्वार्थसिद्ध विमान से चवकर जिस तरह मानस सरोवर से गंगातट में हंस उतरता है उसी तरह नाभि कुलकर की स्त्री-मरुदेवी के उदर में अवतीर्ण हुए । उसी रात्रि में मरुदेवी ने चौदह महास्वप्न देखे-१ वृषभ, २, हाथी, ३ सिंह, ४ लक्ष्मी, ५पुष्पमाला, ६ चन्द्रमण्डल, ७ सूर्यमण्डल, ८ ध्वजा ९ कलश, . १० पद्मसरोवर, ११ क्षीर समुद्र, १२ देवविमान, १३ रत्न राशि और १४ निर्धूम अग्नि ।
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