Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ ध्यानशतक ने यति की कर्मविशुद्धि के करनेवाले ध्यान के प्रकरण या अध्ययन को एक सौ पांच (१०५) गाथाओं द्वारा कहा है। यह गाथा स्वयं ग्रन्थकार के द्वारा रची गई है या पीछे किसी अन्य के द्वारा जोड़ी गई है, यह सन्देहापन्न है। सम्भवतः इसी के आधार से श्री विनयभक्ति सुन्दरचरण ग्रन्थ माला द्वारा प्रकाशित उसके संस्करण में उसे जिनभद्र गणि.क्षमाश्रमण द्वारा विरचित निनिष्ट किया गया है। किन्तु वह जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा रचा गया है, इसमें सन्देह है। श्री पं. दलसुखभाई मालवणिया का मन्तव्य है कि ध्यानशतक के रचयिता के रूप में यद्यपि जिनभद्र गणि से नाम का निर्देश देखा जाता है, पर वह सम्भव नहीं दिखता। इसका कारण यह है कि हरिभद्र सूरि ने अपनी आवश्यक नियुक्ति की टीका में समस्त ध्यानशतक को शास्त्रान्तर स्वीकार करते हुए समाविष्ट किया है तथा वहां उसकी समस्त गाथाओं की व्याख्या भी उन्होंने की है। पर वह किसके द्वारा रचा गया है, इसके सम्बन्ध में उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। इसके अतिरिक्त हरिभद्र सूरि की उक्त टीका पर टिप्पणी लिखनेवाले आचार्य मलधारी हेमचन्द्र सूरि ने भी उसके रचयिता के विषय में कुछ भी सूचना नहीं की। हरिभद्र सूरि ने जो उसे शास्त्रान्तर कहा है इससे वह स्वतंत्र ग्रन्थ है, यह तो निश्चित है। पर वह प्रावश्यक नियुक्ति के रचयिता की कृति नहीं है, यह उससे फलित नहीं होता । उसके प्रारम्भ में जो योगीश्वर वीर जिन को नमस्कार किया गया है, इस कारण से हरिभद्र सूरि उसे आवश्यक नियुक्तिकार की कृति न मानते हों, यह तो हो नहीं सकता । कारण यह कि आवश्यक नियुक्ति में किसी नवीन प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए कितने ही बार तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। तदनुसार ध्यान के महत्त्वपूर्ण प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए वीर को नमस्कार किया गया है । अतः उसे नियुक्तिकार भद्रबाहु की ही कृति समझना चाहिए। हरिभद्र सूरि ने जो उसे शास्त्रान्तर प्रगट किया है वह विषय की महत्ता को देखते हुए ही प्रगट किया है। यदि वह जिनभद्र की कृति होती तो उसकी व्याख्या करते हुए हरिभद्र सूरि उसकी सूचना अवश्य करते'। मेरे विचार में भी वह जिनभद्र क्षमाश्रमण की कृति प्रतीत नहीं होती। कारण यह कि उनके द्वारा विरचित विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पसूत्र के देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे विवक्षित ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए प्रवचन को प्रणाम करके ग्रन्थ के कहने की प्रतिज्ञा करते हैं तथा उसे समाप्त करते हए उसकी उपयोगिता को प्रगट करते हैं । यथा कतपवयणप्पणामो वोच्छं चरण-गुणसंगहं सयलं। पावसयाणुयोगं गुरूपदेसाणुसारेणं ॥ विशेषा. १. कयपवयणप्पणामो वोच्छं पच्छित्तदाण संखवं । जीयव्यवहारगयं जीयस्स विसोहणं परमं ॥ जीयकप्पसुत्त १२ समाप्ति-सव्वाणयोगमलं भासं सामाइयस्स जाऊण । होति परिकम्मियमतो जोग्गो सेसाणुयोगस्स ॥ विशेषा, ४३२६. इय एस जीयकप्पो समासप्रो सुविहियाणुकम्पाए। कहियो देयोऽयं पुण पत्ते सुपरिच्छियगुणम्मि ॥ जीयकप्पसुत्त १०३. पर प्रस्तुत ध्यानशतक में प्रवचन को प्रणाम न करके योगीश्वर वीर को नमस्कार किया गया है तथा उसे समाप्त करते हुए यद्यपि उसकी उपयोगिता प्रगट की गई है, किन्तु वह कुछ भिन्न रूप में की गई है। इसके अतिरिक्त विवादापन्न १०६ठी गाथा में जिस प्रकार जिनभद्र क्षमाश्रमण के नाम का १. गणधरवाद, प्रस्तावना पृ. ४५.

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 200