Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 19
________________ / देव, शास्त्र और गुरु का अभाव है। अभेद-दृष्टि से जो केवलज्ञान है, वही सुख है और परिणाम भी वही है। उसे दुःख नहीं है क्योंकि उसके घातिया कर्म नष्ट हो गए हैं। प्रकारान्तर से सिद्धों के अन्य अनन्त गुण द्रव्यसंग्रह की ब्रह्मदेवरचित संस्कृत टीका में कहा है कि सम्यक्त्वादि सिद्धों के आठों गुण मध्यमरुचि वाले शिष्यों के लिए हैं। विशेषभेदनय के आलम्बन से गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदरहितता, कषायरहितता, नामरहितता, गोत्ररहितता, आयुरहितता आदि निषेधपरक विशेष गुण तथा अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि विधिपरक सामान्यगुण आगम के अविरोध से अनन्त गुण जानना चाहिए। वस्तुतः संसार में कर्मोदय से अनन्त अवगुण होते हैं और जब कोंदय नहीं रहता तो उनका अभाव ही अनंतगुणपना है। भगवती आराधना आदि में अकषायत्व, अवेदत्व, अकारत्व, देहराहित्य, अचलत्व और अलेपत्व ये सिद्धों के आत्यन्तिक गुण कहें हैं। धवला में आया है कि सिद्धों के क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान और दर्शन (अन्तरायाभावजन्य अनन्तवीर्य को छोड़कर तीन) गुणों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार गुणा करने पर बारह गुण होते हैं।' अन्तरायाभाव को गुणरूप न मानकर लब्धिरूप माना गया है। अतः ऊपर तीन क्षायिक गुण लिए हैं। अन्तराय कर्म के अभाव में अनन्तवीर्य के स्थान पर धवला में क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिक-उपभोग और क्षायिकवीर्य ये पाँच क्षायिकलब्धिरूप गुणों का उल्लेख भी मिलता है। 1. स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकं हि सौख्यम्। -प्र०सा०/त०प्र०/६१. 2. केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणामं च सो चेव। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा धादी खयं जादा।। -प्र०सा०६०.. 3. इति मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया .......... स्वागमविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या। -द्र०सं०, टीका 14/43/6 4. अकसायमवेदत्तमकारकदाविदेहदा चेव। अचलत्तमलेपत्तं च हुंति अच्वंतियाई से।। -भ०आ० 2157 तथा देखिए, ध० 13/5.4.26 गा० 31/70. ५.द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा। सिद्धाप्रगुणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधा स्मृताः।। -ध० १३/५.४.२६/गा० 30/69 6. धवला, 7/2.1.7 गा० 4-11/14-15. प्रथम अध्याय : देव (अर्हन्त-सिद्ध) सिद्धों में औपशमिकादि भावों का अभाव क्षायिक भावों में केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व भावों को छोड़कर सिद्धों में औपशमिकभाव, क्षायोपशमिकभाव, औदयिकभाव तथा भव्यत्व नामक पारिणामिक भावों का अभाव होता है। सिद्धों में सभी कर्मों का अभाव (क्षय) होने से औपशमिकादि भावों का प्रश्न ही नहीं होता, क्योंकि वे तो कर्मों के सद्भाव में ही सम्भव हैं। पारिणामिक भावों में भी अभव्यत्व भाव का पहले से अभाव रहता है क्योंकि सिद्ध होनेवाले में भव्यत्वभाव रहता है, अभव्यत्व नहीं। सिद्ध हो जाने के बाद भव्यत्व (भवितुं योग्यः भव्या-भविष्य में सिद्ध होने की योग्यता) भाव का भी अभाव हो जाता है। पारिणामिक भावों में अब बचा केवल जीवत्व भाव जो सदा रहता है। यहाँ इतना विशेष है कि सिद्धों में जीवत्वभाव दशप्राणों की अपेक्षा से नहीं है, अपितु ज्ञान-दर्शन की अपेक्षा शुद्ध जीवत्व भाव है, क्योंकि सिद्धों में कर्मजन्य दशप्राण नहीं होते हैं। संयतादि तथा जीवत्व आदि क्षायोपशमिकादि भावों से जन्य इन्द्रियादि का अभाव होने से इन्द्रियव्यापारजन्य ज्ञान-सुखादि भी नहीं रहता। अतएव वे न संयत हैं, न असंयत, न संयतासंयत, न संज्ञी और न असंज्ञी। सिद्धों में दस प्राणों का अभाव होने से वे 'जीव' भी नहीं हैं, उन्हें उपचार से 'जीव' या 'जीवितपूर्व' कहा जा सकता है। इस सन्दर्भ में 1. औपशमिकादिभव्यत्वानां च। अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः। -त०सू० 10/3-4; तथा वही सवार्थसिद्धि टीका। 2. न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धेषु क्षयोपशमोऽस्ति तस्य क्षायिकभावेनापसारितत्त्वात्। -ध० 1/1.1.33/248/11 ३.ण वि इंदियकरणजुदा अवग्गहादीहिगाहिया अत्थे। णेव य इंदियसोक्खा अणिंदियाणंत-णाणसुहा।। -ध० १/१.१.३३/गा०१४०/२४८ 4. सिद्धानां का संयमो भवतीति चेन्नैकोऽपि। यथा बुद्धिपूर्वकनिवृत्तेरभावान्न संयतास्तत एव न संयतासंयताः, नाप्यसंयताः प्रणष्टाशेषपापक्रियायाः।-ध०१/१.१.१३०/३७८/८. 5. तं च अजोगिचरमसमयादो उवरि णत्थि, सिद्धेषु पाणणिबंधणट्ठकम्माभावादो। तम्हा सिद्धां ण जीवा जीविदपुव्वा इदि। सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छज्जदे। ण, उवयारस्स सच्चताभावादो। सिद्धेषु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्तंण पारिणामियं किंतु कम्मविवागज। -ध. 14/5.6.16/13/3

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