Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 36
________________ 54 देव, शास्त्र और गुरु आचार्य धीर, गम्भीर, निष्कम्प, निर्भीक, सौम्य, निलेप तथा शूरवीर होते हैं। पञ्चेन्द्रियरूपी हाथी के मद का दलन करने वाले, चौदह विद्यास्थानों में पारंगत, स्वसमय-परसमय के ज्ञाता और आचाराङ्ग आदि अङ्गग्रन्थों के विज्ञाता होते हैं। प्रवचनरूपी समुद्रजल में स्नान करने से निर्मल बुद्धि वाले होते हैं। ऐसे आचार्य ही साक्षात् गुरु हैं तथा नमस्कार करने के योग्य हैं। इनसे भिन्न स्वरूप वाले न तो आचार्य (संघपति) हैं और न गुरु। आचार्य के छत्तीस गुण आचार्य के छत्तीस गुण कौन-कौन हैं? इस विषय में पूर्ण एकरूपता नहीं है। आचार्य मूलतः साधु है, अत: कुछ गुण ऐसे हैं जो एक सामान्य साधु में होना अनिवार्य हैं। जैसे- आठ आचारवत्व आदि, दस स्थितिकल्प, बारह तप और छह आवश्यक- ये आचार्य के छत्तीस गुण हैं। अपराजितसूरि के अनुसार आठ 1. पंचाचारसमग्गा पंचिदियदंतिदप्पणिद्दलणा। धीरा गुणगम्भीरा आयरिया एरिसा होति।। -नि. सा. 73 पवयणजलहि-जलोयर-ण्हायामलबुद्धिसुद्धछावासो। मेरुव्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो वण्णो।। देसकुलजाइसुद्धो सोमङ्गो संग-संग उम्मुक्को। गयणव्व णिरूवलेवो आयरिओ एरिसो होइ।। संगह-णिग्गहकुसलो सुत्तत्थ विसारिओ पहियकित्ती। सारण-वारण-साहण-किरियुज्जुत्तो हु आयरिओ / / -ध. 1/1.1.1/29-31 चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधराः। आचाराङ्गधरो वा। तात्कालिक-स्वसमयपरसमय-पारगो वा मेरुरिव निश्चलः, क्षितिरिव सहिष्णुः। सागर इव बहिङ्क्षिप्तमलः सप्तभयविप्रमुक्ता आचार्यः।-ध., 1/1.1.1/48/8 तथा देखिए, मूलाचार 158, 159 2. उक्तवततपशीलसंयमादिधरो गणी। नमस्यः स गुरुः साक्षात्तदन्यो न गुरुर्गणी।। -पं. अ., उ. 658 3. आयारवमादीया अट्ठगुणा दसविधो य ठिदिकप्पो। बारस तव छावासय छत्तीस गुणा मुणेयव्वा।। -भ. आ. 528 आचारवान् श्रुताधारः प्रायश्चित्तासनादिदः। आयापायकथी दोषाभाषकोऽश्रावकोऽपि च।। सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च। दिगम्बरोऽप्यनुद्दिष्टभोजी शय्यासनीति च।। आरोगभुक् क्रियायुक्तो व्रतवान् ज्येष्ठ सद्गुणः। प्रतिक्रमी च षण्मासयोगी च तद्विनिषद्यकः।। तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पाँच समिति तथा तीन गुप्ति, ये आचार्य के छत्तीस गुण हैं। अन्यत्र अट्ठाईस मूलगुण तथा आचारवत्व आदि आठ गुणों को; कहीं दश आलोचना, दश प्रायश्चित्त, दश स्थिति और छै जीतगुणों को; कहीं बारह तप, छै आवश्यक, पाँच आचार, दश धर्म और तीन गुप्तियों को आचार्य के छत्तीस गुण बतलाये हैं। आचारवत्व आदि आठ गुण 1. आचारवत्व (पाँच प्रकार के आचार का स्वयं पालन करना तथा दूसरों से पालन करवाना), 2. आधारवत्व (श्रुताधार=श्रुत का असाधारण ज्ञान), 3. व्यवहारपटु (प्रायश्चित्त वेत्ता), 4. प्रकृर्वित्व (समाधिमरण आदि कराने में कुशल), 5. आयापायकथी (गुण-दोष बताने में कुशल), 6. उत्पीलक (अवव्रीडक-दोषाभाषक), 7. अपरिस्रावी (श्रमणों के गोप्यदोषों को दूसरों पर प्रकट न करने वाला), और 8. सुखावह या संतोषकारी निर्यापक (निर्यापकाचार्य के गुणों वाला)- ये आचार्य के आचारवत्व आदि आठ गुण हैं। दस स्थिति-कल्प 1. आचेलक्य (दिगम्बर), 2. अनुद्दिष्ट भोजी, 3. शय्यासनत्याग, 4. राजपिण्डत्याग (राजाओं के भोजन का त्याग) या आरोगभुक् (ऐसा भोजन द्वि षद्तपास्तथा षट्चावश्यकानि गुणा गुरोः।। -बो. पा., टीका 1/72 में उद्धृत) अष्टावाचारवत्वाद्यास्तपांसि द्वादशस्थितेः। कल्पा दशाऽवश्यकानि षट् षट्त्रिंशद्गणा गणेः।। -अन. घ.९/७६ 1. अष्टौ ज्ञानाचारा: दर्शनाचाराचाष्टौ तपो द्वादशविधं पंच समितयः तिस्रो गुप्तयश्च षट्त्रिंशद्गुणाः। - भ. आ., विजयोदया टीका 528 २.मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 361-362 तथा रलकरण्डश्रावकाचार 5, सदासुखकृत षोडशकारणभावना में आचार्य-भक्ति। 3. आयारवं च आधारवं च ववहारवं पकुव्वीय। आयावायवीदंसी तहेव उप्पीलगो चेव।। 417 अपरिस्साई णिव्वावओ य णिज्जावओ पहिदकित्ति। णिज्जावणगुणोवेदो एरिसओ होदि आयरिओ / / -भ. आ. 418 तथा देखें, पृ. 54, टि. 3. 4. आचेलक्कुद्देसिय-सेज्जाहर-रायपिंड-किरियम्मे। जेट्ठ पडिक्कमणे वि य मासं पज्जो सवणकप्पो। -भ.आ. 421 तथा देखें, पृ. 54, टि. 3.

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