________________ देव, शास्त्र और गुरु 3. जो सात तत्त्वों का भेदपूर्वक श्रद्धान करता है, भेदरूप से जानता है तथा विकल्पात्मक भेदरूप रत्नत्रय की साधना करता है, वह व्यवहारावलम्बी साधु है। 4. शुद्धात्मा में अनुराग से युक्त तथा शुभोपयोगी चारित्र वाला सरागी साधु होता है। 5. व्यवहारावलम्बी साधु को मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक तेरह प्रकार की क्रियाओं की भावना करनी चाहिए। वे तेरह प्रकार की क्रियाएँ हैं- पञ्च-परमेष्ठी नमस्कार, षडावश्यक, चैत्यालय में प्रवेश करते समय 'निसिही' शब्द का तीन बार उच्चारण तथा चैत्यालय से बाहर निकलते समय 'असिही' शब्द का तीन बार उच्चारण अथवा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकार का चारित्र ही तेरह क्रियाएँ हैं। 6. अर्हदादि में भक्ति, ज्ञानियों में वात्सल्य, श्रमणों के प्रति वन्दन अभ्युत्थान-अनुगमनरूप विनीत-प्रवृत्ति, धर्मोपदेश, देववन्दन आदि क्रियाएँ शुभोपयोगी साधु की हैं। साधु के अट्ठाईस मूलगुण दिगम्बर जैन साधु के लिए हमेशा जिन गुणों का पालना अनिवार्य है तथा जिनके बिना साधु कहलाने के योग्य नहीं है उन्हें साधु के मूलगुण कहते हैं। उनकी संख्या अट्ठाईस है- पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिग्रह, छः आवश्यक, केशलौंच, आचेलक्य, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़ेखड़े भोजन (स्थित-भोजन) और एक-भक्त (एक बार भोजन)। *1. श्रद्धानः परद्रव्यं बुध्यमानस्तदेव हि। तदेवोपेक्षमाणश्च व्यवहारी स्मृतो मुनिः।। -त० सार० 9/5 2. शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रत्व-लक्षणम्। -प्र०सा०, त०प्र० 246 3. भावपाहुड, टीका 78/229/11 4. द्रव्यसंग्रह, 45 5. प्रवचनसार, 246-252 6. वदसमिर्दिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतधोवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च।। -प्र०सा० 208 मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। -प्र०सा० 209 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) (क) पाँच महाव्रत- पाँच महाव्रत इस प्रकार हैं- 1. अहिंसा (हिंसाविरति), 2. सत्य, 3. अचौर्य (अदत्त-परिवर्जन), 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह (धनादि तथा रागादि से विमुक्ति)। इन व्रतों का श्रावक एकदेश (स्थूलरूप) से और साधु सर्वदेश से पालन करते हैं। अतः श्रावक अणुव्रती और साधु महाव्रती कहलाते हैं। इन महाव्रतों के द्वारा क्रमशः हिंसादि पाँचों पापों का पूर्णरूप से त्याग किया जाता है। संयम-पालने हेतु शरीर-धारण आवश्यक होता है जिससे पूर्ण हिंसादि का त्याग संभव नहीं है। इसीलिए सराग संयमी के लिए सूक्ष्म हिंसादि दुर्निवार है। वस्तुतः पूर्णतः वीतराग चारित्र उपशान्तमोह या क्षीणमोह के पूर्व संभव नहीं है। फिर भी हिंसादि-क्रियाओं में सामान्यतया साधु की प्रवृत्ति न होने से वह महाव्रती है। वह स्वयं आरम्भ आदि क्रियायें नहीं करता है। सदा गुप्तियों का पालन करता है। आवश्यक होने पर समितियों के अनुसार प्रवृत्ति करता है। अशुभ-क्रियाओं में कदापि प्रवृत्त नहीं होता है। (ख) पाँच समितियाँ- चारित्र और संयम में प्रवृत्ति हेतु पाँच समितियाँ बतलाई हैं- 1. ईर्या- समिति (गमनागमनविषयक सावधानी), 2. भाषा-समिति (वचनविषयक सावधानी), 3. एषणा-समिति (आहार या भिक्षाचर्याविषयक सावधानी), 4. आदाननिक्षेपण-समिति (शास्त्रादि के उठाने-रखने में सावधानी) और 5. उच्चारप्रस्रवण या प्रतिष्ठापनिका-समिति (मलमूत्रादि-विसर्जनसम्बन्धी सावधानी)। ये समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति में सहायिका हैं। यदि प्रवृत्ति करना आत्यावश्यक न हो तो तीनों गुप्तियों (मन, वचन और काय की प्रवृत्ति न होना) का पालन करना चाहिए। ये गुप्तियाँ और समितियाँ महाव्रतों के रक्षार्थ कवचरूप हैं। (ग) पाँच इन्द्रियनिग्रह- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कान) इन पाँच इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों (क्रमशः स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और .. शब्द) में प्रवृत्त होने से रोकना। (घ) छः आवश्यक (नित्यकम)- 1. सामायिक (संयम) 2. चतुर्विंशतिस्तव (चौबीस तीर्थङ्करों के गुणों का कीर्तन), 3. वंदना (ज्येष्ठ एवं गुरुओं के प्रति बहुमान प्रकट करना), 4. प्रतिक्रमण (दोषों का परिमार्जन), 5. प्रत्याख्यान (अशुभ-प्रवृत्तियों का त्याग) तथा 6. कायोत्सर्ग (शरीर से ममत्वत्याग)- ये साधु के छः नित्यकर्म हैं। (ङ) शेष सात मूलगुण-१. लोच या केशलौच (मस्तक तथा दाढी-मूंछ के बालों को अपने या दूसरों के हाथों से उखाड़ना), 2. आचेलक्य या नग्नत्व, 3. अस्नान, 4. भूमिशयन (औंधे या सीधे न लेटकर धनुर्दण्डाकारमुद्रा में एक