________________ 104 देव, शास्त्र और गुरु परन्तु वर्षाकाल में चार माह या आषाढ शुक्ला दसमी से कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक एक स्थान में रहे। दुर्भिक्षादि के आने पर तथा अध्ययन आदि प्रयोजनवश इस सीमा में क्रमशः हानि-वृद्धि की अनुमति दी जा सकती है। वर्षा ऋतु में चारों ओर हरियाली होने, मार्गों के अवरुद्ध होने तथा पृथिवी पर त्रस-स्थावर जीवों की संख्या बढ़ जाने से अहिंसा, संयम आदि का पालन कठिन हो जाता है। अतएव साधु को इस काल में एक स्थान पर रहने का विधान किया गया है। वर्षायोग को दसवाँ पाद्य नामक स्थितिकल्प कहा गया है।' अनगारधर्मामृत में वर्षावास के सम्बन्ध में कहा है कि- आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर में चैत्यभक्ति आदि करके वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए तथा कार्तिक कृष्णा चतुर्दर्शी की रात्रि के पिछले पहर में चैत्य-भक्ति आदि करके वर्षायोग छोड़ना चाहिए। वर्षावास के समय में जो थोड़ा अन्तर है वह उतना महत्त्व का नहीं है, जितना महत्त्व वर्षा होने की परिस्थितियों से है, क्योंकि अलगअलग स्थानों पर अलग-अलग समयों में वर्षा प्रारम्भ होती है। अतएव प्रयोजनवश इसमें हानि-वृद्धि का विधान है। मूल उद्देश्य है अहिंसा और संयम का प्रतिपालन। मूलाचार आदि प्राचीन मूल ग्रन्थों में वर्षायोग का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु उनकी टीकाओं में है।' रात्रिविहार-निषेध सूर्योदय के पूर्व तथा सूर्यास्त के बाद रात्रि में सूक्ष्म और स्थूल जीवों का संचार ज्यादा रहता है तथा अन्धकार होने से वे ठीक से दिखलाई नहीं पड़ते, अतएव संयम-रक्षार्थ रात्रिविहार निषिद्ध है। मल-मूत्रादि विसर्जनार्थ रात्रि में गमन कर सकता है, परन्तु रात्रि-पूर्व ऐसे स्थान का अवलोकन कर लेना चाहिए। आजकल प्रकाश की व्यवस्था हो जाने से दिखलाई तो कुछ ज्यादा पड़ता है परन्तु उतना नहीं जितना सूर्य के प्रकाश में दिखता है तथा रात्रिजन्य स्वाभाविक जीवोत्पत्ति तो बढ़ ही जाती है। इसके अलावा सर्वत्र प्रकाश की व्यवस्था नहीं रहती और साधु न तो स्वयं प्रकाश की व्यवस्था कर सकता है और न करा सकता है। 1. भ.आ., वि. 421/616/10 2. अनगारधर्मामृत 9/68-69 3. वर्षाकालस्य चतुर्ष मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः। - भ.आ., वि.टी. 421; तथा देखें, मूलाचारवृत्ति 10/18 4, मूलाचार 323 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 105 नदी आदि जलस्थानों में प्रवेश (अपवाद माग) सामान्यतः जल से भीगे स्थान में नहीं चलना चाहिए। यदि जाना आवश्यक हो तो सूखे स्थान से ही जाना चाहिए, भले ही वह रास्ता लम्बा क्यों न हो।' अपवाद-स्थिति होने पर कभी-कभी विहार करते समय जलस्थानों को पार करना पड़ता है। यदि जल घुटनों से अधिक न हो तो पैदल जाया जा सकता है। जल में प्रवेश करने के पूर्व साधु को पैर आदि अवयवों से सचित्त और अचित्त धूलि को दूर करना चाहिए और जल से बाहर आने पर पैरों के सूखने तक जल के समीप किनारे पर ही खड़ा रहना चाहिए। जलस्थान पार करते समय दोनो तटों पर सिद्ध-वन्दना करना चाहिए। दूसरे तट की प्राप्ति होने तक शरीर, आहार आदि का प्रत्याख्यान (परित्याग) करना चाहिए। दूसरे तट पर पहुँचकर दोष को दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। यह जलप्रवेश अपवाद मार्ग है। आज नदियों पर पुलों का निर्माण हो गया है, अतएव ऐसे जलप्रवेश के मौके प्रायः नहीं आते। अच्छा तो यही होगा कि यदि जाना अति आवश्यक न हो तो नहीं जाना चाहिए या दूसरा रौस्ता अपनाना चाहिए। अपवाद मार्गों को अपनाना बिना आचार्य की आज्ञा के ठीक नहीं है।' गमनपूर्व सावधानी साधु जब शीतल स्थान से उष्ण स्थान में अथवा उष्ण स्थान से शीतल स्थान में, श्वेत भूमि से रक्त भूमि में अथवा रक्त भूमि से श्वेत भूमि में प्रवेश करे 1. आचार्य शान्तिसागर के साथ घटी दो घटनाएं अपवादमार्ग के संदर्भ में विशेष ध्यान देने योग्य हैं(क). एक बार आचार्य धौलपुर स्टेट जा रहे थे। उन्हें नग्न देखकर लट्ठमार आ गए और लाठियों से पीटने लगे। जब राजा को पता चला तो उसने उन लट्ठमारों को पकड़वाया। पश्चात् आचार्य से पूछा, इन्हें क्या सजा देवें। उत्तर में आचार्य ने कहा यदि आप मेरी बात मानें तो इन्हें माफ कर देवें। फलतः उन्हें माफ कर दिया गया और वे लट्ठमार आचार्य के भक्त हो गए। (ख). एक बार दिल्ली में कलक्टर का आदेश था कि जैन नग्न साध सड़क पर न निकलें। फलतः श्रावक साधु को चारों ओर से घेरकर ले जाते थे। एक बार आचार्यश्री अकेले पहाड़ी धीरज चले गए। जब वे वापस लौट रहे थे तो चौराहे पर सिपाही ने उन्हें रोककर शासनादेश सुनाया। सड़क पर नग्नावस्था में जब उन्हें न आगे और न पीछे माने दिया, तो आचार्य वहीं बीच सड़क पर बैठ गए। स्थिति की नाजुकता को देख कलक्टर ने उन्हें जाने की अनुमति दे दी। जामा मस्जिद के पास उनके चित्र भी लिए गए। इन दोनों घटनाओं से स्पष्ट है कि कठिन परिस्थितियों में भी अपवाद मार्ग नहीं अपनाना चाहिए। दृढ़ता होने पर सब ठीक हो जाता है।