________________ 114 देव, शास्त्र और गुरु से महाव्रती है। उत्तम संहनन वाले को ही मुक्ति मिलती है। स्त्रियों में जघन्य तीन संहनन माने गए हैं जिससे वे निर्विकल्पध्यान नहीं कर पातीं। नग्न दीक्षाव्रत पालन करना स्त्रियों को उचित नहीं है क्योंकि उनके साथ बलात्कार की संभावना अधिक है। इसके अलावा मासिक धर्म, लज्जा, भय आदि भी स्त्रियों में हैं। संभवतः इसीलिए स्त्रियों को नग्न-दीक्षा नहीं बतलाई गई है। शास्त्रसम्मत पर्यायगत अयोग्यता के कारण स्त्री महाव्रती नहीं हो पाती। उसे उपचार से महाव्रती कहा गया है। ऐलक को ऐसी पर्यायगत अयोग्यता नहीं है। अतएव उसे उपचार से भी महाव्रती नहीं कहा है। यही कारण है कि आर्यिका ऐलक के द्वारा वन्दनीय है। पिच्छी और कमण्डल आर्यिका, ऐलक और क्षल्लक सभी रखते हैं। आर्यिकाओं का आचारादि प्रायः मुनि के ही समान होता है। जैसे- महाव्रतों का पालन करना, पिच्छी-कमण्डलु और शास्त्र रखना, करपात्र में आहार करना, केशलौञ्च करना आदि। परन्तु कुछ अन्तर भी हैं, जैसे- बैठकर भोजन करना (खड़े-खड़े नहीं); दो सफेद साड़ियों का परिग्रह रखना (एक बार में एक साड़ी पहनना), नग्न न रहना आदि। पूर्णमहाव्रती न होने से दिगम्बर-परम्परा में आर्यिकाओं को तद्भव मोक्षगामी नहीं माना गया है। स्त्री-क्षुल्लिकायें भी होती हैं। सभी आर्यिकायें आचार्य के नेतृत्व में ही अपनी संयमयात्रा का निर्वाह करती हैं। श्रमण संघ में जो स्थान आचार्य का होता है वही स्थान आर्यिकासंघ में गणिनी (महत्तरिका, प्राधान आर्यिका, स्थविरा) का होता है। आर्यिका के आने पर साधु को उनके साथ एकाकी उठना-बैठना नहीं चाहिए। उपसंहार इस तरह साधु-जीवन आत्मशोधन का मार्ग है। इसके लिए उसे सतत जागरूक रहना होता है। प्रत्येक व्यवहार में यत्नाचारपूर्वक मन, वचन और काय की शुद्धि का ध्यान रखना होता है। वीतरागता, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अहिंसा आदि का सम्यक् निर्वाह हो एतदर्थ मूलगुणों और उत्तरगुणों का पालन करना पड़ता 1. कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नार्हत्यार्यो महाव्रतम्। अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटकेऽप्यार्यिकार्हति।। -सागार. 8.37 2. एसो अज्जाणं पि अ सामाचारो जहक्खिओ पुवं। सव्वम्हि अहोरत्तं विभासिदव्वो जधाजोग्ग।। - मूलाचार 4.187 3. महाकवि दौलतरामकृत क्रियाकोश, भ.आ. 79, सुत्तपाहुड 22, ४.मू.आ. 177-182 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) है। समय-समय पर विशेष तपश्चर्यादि करनी होती है। दिगम्बर जैन मान्यता में सवस्त्र की पूजा नहीं होती। अतः क्षुल्लकादि को गुरु नहीं कहा गया है। साधुपद में चारित्र की प्रधानता है, श्रुत की नहीं। क्योंकि चरित्रहीन साधु का बहुश्रुतज्ञपना भी निरर्थक है। चारित्र की शुद्धि के लिए ही पिण्डादि शुद्धियों का विधान किया गया है। ज्ञान का महत्त्व तब है जब व्यक्ति ज्ञान के अनुसार आचरण करे। ज्ञान हो और आचार न हो तो वह ठीक नहीं है। यह भी जानना चाहिए कि सम्याज्ञान के बिना चारित्र सम्यक नहीं हो सकता है। अतएव सम्यक्चारित्र के लिए सम्यग्ज्ञान-प्राप्ति हेतु सदा प्रयत्नशील रहे। यहाँ इतना विशेष है कि साधू तभी बने जब साधुधर्म का सही रूप में पालन कर सके। अपरिपक्व बुद्धि होने पर अथवा आवेश में दीक्षा न स्वयं लेवे और न दूसरों को देवे। पापश्रमण न बने। पापश्रमण बनने की अपेक्षा पुनः गृहस्थधर्म में आ जाना श्रेष्ठ है। साधुधर्म बहुत पवित्र धर्म है। अतएव जो इसका सही रूप में पालन करता है वह भगवान् कहलाता है; जैसाकि मूलाचार में कहा है जो आहार, वचन और हृदय का शोधन करके नित्य ही सम्यक् आचरण करते हैं वे ही साधु हैं। जिनशासन में ऐसे साधु को भगवान् कहा गया है।' अज्ञान-तिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः / / णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोएसव्वसाहूणं १.मू.आ. 899-900 / 2. मू.आ. 935 3. मू.आ. 909 4. भिक्कं वक्कं सोधिय जो चरदि णिच्च सो साहू। एसो सुद्विद साहू भणिओ जिणसासणे भयवं।। -मू.आ१००६