Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 90
________________ प्रथम परिशिष्ट : प्रसिद्ध दि. जैन शास्त्रकार आचार्य और शास्त्र 123 शाखकार-आचार्य शाख प्रथम परिशिष्ट : प्रसिद्ध दिगम्बर जैन शास्त्रकार आचार्य और शास्त्र श्रेणी-क्रम से शास्त्रकारों और उनके शास्त्रों का परिचय (क) श्रुतधराचार्य शास्त्रकार-आचार्य शास्त्र समया, परिचयादि समय, परिचयादि वी.नि.सं. ५वीं शताब्दी का तथा नागहस्ती को वी.नि.सं. ७वीं शताब्दी का माना है। दोनों परम्पराओं में आर्यमंक्षु ज्येष्ठ हैं। दोनों क्षमाश्रमण तथा महावाचक पदों से विभूषित थे। जय-धवला में इन्हें आरातीय-परम्पराका ज्ञाता कहा है। चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ आर्यमंक्षु के शिष्य थे और नागहस्ती के अन्तेवासी (सहपाठी)। इन्द्रनंदि के श्रुतावतार में इन्हें कसायपाहुड-कर्ता गुणधराचार्य का शिष्य कहा है। मंगु और मक्षु दोनों एकार्थक हैं। श्वेपरम्परा में मंगु नाम आया है। ई. सन् प्रथम शताब्दी। नाथूराम प्रेमी वी. नि. सं. 683 के बाद। डा. देवेन्द्र कुमार गुणधराचार्य के आसपास। इनके समय के सम्बन्ध में कई मत हैं। आप युग-संस्थापक तथा श्रुतधराचार्यों में प्रमुख हैं। इनके ग्रन्थों के दो प्रमुख टीकाकार हैंअमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य। इनके जीवन की दो प्रमुख घटनायें हैं-विदेह क्षेत्र की यात्रा और गिरनार पर्वत पर श्वे. के साथ हुए वादविवाद में विजय। इनकी सभी रचनायें शौरसेनी प्राकृत कुन्दकुन्द (पद्यनन्दि) प्रवचनसार, समयसार पंचास्तिकाय, नियमसार, द्वादशानुप्रेक्षा, अष्टपाहुड, रयणसार, दशभक्ति में हैं। गुणधर कसायपाहुड वि.पू. प्रथम शताब्दी। अर्हदलि (वी.नि.सं. (पेज्जदोसपाहुड) 565) या वि. सं. 95 से पूर्ववर्ती। कसायपाहुड और षट्खण्डागम के अनेक तथ्यों में मतभेद है जिसे तन्त्रान्तर कहा है। धरसेन (षट्खण्डागम ई. सन् 73, नंदिसंघ की प्राकृत-पट्टावली के प्रवचनकर्ता) अनुसार वी.नि. सं. 614 के बाद। जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) आपकी रचना है, ऐसा उल्लेख मिलता है। पुष्पदन्त छक्खण्डागम ई. सन् 1-2 शताब्दी। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन (षट्खण्डागम ई.सन् 50-80 / नंदिसंघ की प्राकृतपट्टावली के के जीवट्ठण अनुसार वी. नि. सं. 633 के बाद। कार्यकाल नामक प्रथम 30 वर्ष। ये भूतबलि से ज्येष्ठ थे। भूतबलि के खण्ड की साथ आपने धरसेनाचार्य से षट्खण्डागम सत्प्ररूपणा सीखा। षट्खण्डागम लिखने का प्रारम्भ पर्यन्त) किया परन्तु अल्पायु होने से पूरा न कर सके। बाद में गुरु-भाई भूतबलि ने उसे पूरा किया। षट्खण्डागम पुष्पदंताचार्य सम-समयवर्ती। ई. सन् 87 के आसपास। पुष्पदंत से छोटे थे। डा. ज्योतिप्रसाद जैन ई. सन् 66-90 / डा. हीरालाल जैन वी. नि. सं. 614-683 / इन्होंने पुष्पदंत की रचना को पूर्ण किया। आर्यमा (श्रुतज्ञ और वि.नि.सं. ७वीं शताब्दी। श्वेताम्बर परम्परा में भी और नागहस्ती उपदेष्टा) ये दोनों आचार्य मान्य है। वहाँ आर्यमक्षु को 1. वि. सं. से ई. सन् 56 वर्ष पीछे है और वी. नि. सं. से 526 वर्ष पीछे है। आर्थात् ई. सन् में 56 वर्ष जोड़ने पर वि. सं. और 526 वर्ष जोड़ने पर वी. नि. सं. आता है। वज्रयश भूतबलि चिरन्तनाचार्य यतिवृषभ कसायपाहुडचूर्णिसूत्र, तिलोयपण्णत्ति यतिवृषभ (ई. सन् 176 के आसपास) से पूर्ववर्ती। तिलोयपण्णत्ति में उल्लेख आया है कि ये अंतिम प्रज्ञाश्रमण तथा ऋद्धिधारक थे। वप्पदेव (संभवतः 5-6 शताब्दी) से पूर्ववर्ती। जयधवलाटीकामें उल्लेख है। येव्याख्यानाचार्यथे। ई. सन् 176 के आसपास। कुन्दकुन्द अवश्य आपसे प्राचीन रहे हैं। इन्हें भूतबलि का समसमयवर्ती या कुछ उत्तरवर्ती भी कहा गया है। धवला और जयधवला में भूतबलि और यतिवृषभ के मतभेद की चर्चा आई है। तिलोयपण्णत्ति के वर्तमान संस्करण में कुछ ऐसी भी गाथायें हैं जो कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों

Loading...

Page Navigation
1 ... 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101