Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 91
________________ 124 प्रथम परिशिष्ट : प्रसिद्ध दि. जैन शास्त्रकार आचार्य और शास्त्र 125 शास्त्रकार-आचार्य शाख शास्त्रकार-आचार्य शास्त्र उच्चारणाचार्य (व्याख्यानाचाय तत्त्वार्थसूत्र उमास्वामी (गृद्धपिच्छाचार्य) वप्पदेव व्याख्याप्रज्ञप्ति देव, शास्त्र और गुरु समय, परिचयादि में हैं। कुछ प्रक्षिप्त गाथायें भी हैं जो दूसरे के द्वारा लिखी गई हैं। पं. हीरालाल के अनुसार कम्मपयडिचूर्णि भी आपकी रचना रही है। ई. सन् दूसरी-तीसरी शताब्दी। कसायपाहुड की जयधवला टीका में अनेक स्थानों पर उल्लेख है। श्रुतपरम्परा में उच्चारण की शुद्धता पर विशेष जोर देने के कारण उच्चारणाचार्यों की मौखिक परम्परा थी। इनका कथन पर्यायार्थिक नय की मुख्यतः से और चूर्णिकार यतिवृषभ का कथन द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से है। यतिवृषभ, आर्यमंक्षु और नागहस्ती के समकालीन। धवलाकार वीरसेन स्वामी के समक्ष वप्पदेव की व्याख्याप्रज्ञप्ति थी। अतः आप वीरसेन स्वामी (डा. हीरालाल के मत से ई. सन् 816) के पूर्ववर्ती हैं। आपने शुभनंदी और रविनंदि से आगम ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इन्होंने महाबन्ध को छोड़कर शेष पांच खण्डों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक टीका लिखी। छठे खण्ड पर संक्षिप्त विवृत्ति लिखी। पश्चात् कषायप्राभृत पर भी टीका लिखी। 'धवला से यह भी ज्ञात होता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या है, वप्पदेव रचित नहीं।' ऐसा डा. नेमिचन्द्र शास्त्री का मत है। कुन्दकुन्दाचार्य के समकालीन। मुनि- आचार का सुन्दर और विस्तृत वर्णन इन्होंने मूलाचार में किया है। ये कुन्दकुन्दाचार्य से भिन्न हैं या अभिन्न, इसमें मतभेद है। श्री जुगलकिशोर मुख्तार तथा डा. ज्योतिप्रसाद जैन अभिन्न मानते हैं। कहीं कहीं मूलाचार को कुन्दकुन्दकृत भी लिखा है। डा. हीरालाल जैन, पं. नाथूराम प्रेमी आदि ने इन्हें कुन्दकुन्द से भिन्न माना है। इसकी कई गाथायें समय, परिचयादि श्वे. के दशदैकालिक सूत्र से मिलती-जुलती हैं। इसे संग्रहग्रन्थ भी कहा गया है। वसुनंदि (११वीं शताब्दी) की इस पर संस्कृत टीका है। ई. सन् द्वितीय शताब्दी। कई इन्हें प्रथम शताब्दी का मानते हैं। संस्कृत के प्रथम जैनसूत्रकार हैं। श्वे. और दिग. दोनों परम्पराओं में मान्य हैं। श्वे. परम्परा में इन्हें उमास्वाति कहते हैं तथा स्वोपज्ञभाष्य सहित तत्त्वार्थसूत्र का रचयिता मानते हैं। कुछ आचार्य तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता कुन्दकुन्द को मानते हैं। तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक आदि संस्कृत टीकायें हैं। जैनपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्र का वही महत्त्व है जो इस्लाम में कुरान का, ईसाई धर्म में बाइबिल का और हिन्दू धर्म में भगवद्गीता का है। इसमें द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग का सार समाहित है। ई.सन् 2-3 शताब्दी। ये यापनीय संघ के आचार्य हैं। यापनीय संघ श्वे. के सूत्र ग्रन्थों को मानता था। अत: इनकी बहुत सी गाथायें श्वे. से मिलती हैं। भगवती-आराधना मुनि-आचार विषयक महत्त्वपूर्ण रचना है। इस पर अपराजित सूरि (7-8 शता.) की विजयोदया संस्कृतटीका है। शिवनंदि और शिवकोटि भी इनके नाम संभव हैं। वि. सं. 2-3 शताब्दी। आपने कुमारावस्था में ही संभवतः मुनि-दीक्षा ले ली थी। ये उमास्वमी के सम-समयवर्ती या कुछ उत्तरवर्ती रहे हैं। बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम और क्रम उमास्वामी की तरह हैं, मूलाचार, भगवतीआराधना तथा कुन्दकुन्द कृत द्वादशानुप्रेक्षा की तरह नहीं। भगवती-आराधना शिवार्य (शिवकोटि) वट्टकेर मूलाचार स्वामि कुमार (कार्तिकेय) कार्तिकेयानुप्रेक्षा

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