________________ 112 देव, शास्त्र और गुरु तीन रात्रिपर्यन्त प्रत्येक क्रिया में उसके साथ रहकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए।' परीक्षोपरान्त साधु यदि योग्य है तो उसे संघ में आश्रय देना चाहिए और यदि अयोग्य है तो आश्रय नहीं देना चाहिए। यदि साधु में दोष हैं तो छेदोपस्थापना आदि करके ही संघ में रखना चाहिए। यदि बिना छेदोपस्थापना आदि किए आचार्य उसे संघ में रख लेते हैं तो आचार्य भी छेद के योग्य हो जाते हैं। अपराध की शुद्धि उसी संघ में होना चाहिए जिसमें वह रहता है, अन्य में नहीं।' बाईस परीषह-जय साधु को मोक्षमार्ग की साधना करते समय भूख -प्यास आदि अनेक कष्ट सताते हैं। क्योंकि उनका सम्पूर्ण जीवन तपोमय है। तप की सफलता कष्टों को सहन किए बिना सम्भव नहीं है। शरीरादि के प्रति आसक्ति ही कष्ट का कारण है। अतः कष्टों के उपस्थित होने पर उन कष्टों को खेदखिन्न न होते हुए क्षमाभाव से सहन करना परीषहजय है। इससे वे मार्गभ्रष्ट होने से बचे रहते हैं तथा कर्मनिर्जरा भी करते हैं। वे बाईस परीषह निम्न प्रकार हैं 1. क्षुधा (भूख), 2. तृषा (प्यास), 3. शीत (ठंढ़क), 4. उष्ण (गर्मी), ५.दंशमसक (मच्छर, डांस मक्खी आदि क्षुद्र जन्तुओं के काटने पर), ६.नाग्न्य (नग्न रहना), 7. अरति (संयम में अरुचि), 8. स्त्री (स्त्री आदि को देखकर कामविकार), 9. चर्या (विहार-सम्बन्धी), १०.निषद्या (श्मशान, शून्यगृहादि वसतिका-सम्बन्धी), 11. शय्या (शयन करने का ऊँचा-नीचा स्थान), 12. आक्रोश (क्रोधयुक्त वचन सुनकर), 13. वध (मारने को उद्यत होने पर), 14. याचना (आहारादि याचनाजन्य), 15. अलाभ (आहारादि की प्राप्ति न होने पर), 16. रोग (बीमारी होने पर), 17. तृणस्पर्श (शुष्क तिनकों के चुभने का कष्ट), 18. मल (पसीना, धूलि आदि जन्य), 19. सत्कार-पुरस्कार (आदरसत्कार आदि न होने पर), 20. प्रज्ञा (ज्ञानमद), 21. अज्ञान (ज्ञान की प्राप्ति न होने पर) और 22. अदर्शन (तपश्चर्या आदि का फल न दिखने पर श्रद्धान में कमी होना)। तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) इन परीषहों या अन्य उपसर्गों के आने पर साधु को साधना मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए। इन परीषहों को अथवा इनके समान अन्य परेशानियों को शान्त भाव से सहन करना ही परीषहजय है। साधु की सामान्य दिनचर्या संभावित समयक्रम करणीय कार्य प्रातः 6-8 के मध्य देववन्दना, आचार्यवन्दना, सामायिक एवं मनन प्रातः 8-10 के मध्य पूर्वाणिक स्वाध्याय दिन में 10-2 के मध्य आहारचर्या (यदि उपवासयुक्त है तो क्रम से आचार्य एवं देववन्दना तथा मनन)। आहार के बाद मंगलगोचर-प्रत्याख्यान तथा सामायिक दोपहर 2-4 के मध्य अपराणिक-स्वाध्याय सायं 4-6 के मध्य दैवसिक-प्रतिक्रमण तथा रात्रि-योग-धारण रात्रि 6-8 के मध्य आचार्य-देववन्दना, मनन एवं सामायिक रात्रि 8-10 के मध्य पूर्वरात्रिक-स्वाध्याय रात्रि 10-2 के मध्य निद्रा रात्रि 2-4 के मध्य वैरात्रिक-स्वाध्याय रात्रि 4-6 के मध्य रात्रिक-प्रतिक्रमण नोट- दैवसिक-क्रियाओं की तरह रात्रिक-क्रियाओं में समय का निश्चित नियम नहीं है। देश-कालानुसार इसमें थोड़ा संशोधन संभावित है। परन्तु करणीय कार्य यथावसर अवश्य करना चाहिए। आर्यिका-विचार अर्यिका उपचार से महाव्रती है, पर्यायगत अयोग्यता के कारण वह साधु नहीं बन पाती। ऐलक और क्षुल्लक तो अभी श्रावकावस्था में ही हैं। अतएव उनमें उपचार से महाव्रतीपना नहीं है। जैसाकि सागारधर्मामृत में कहा है- एक कौपीन (लंगोटी) मात्र में ममत्व के कारण उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक) महाव्रती नहीं है जबकि आर्यिका एक साड़ी रखकर भी उसमें ममत्व न होने के कारण उपचार 1. देखें, जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग 2, पृ. 137. १.मू.आ. 162-164 2. मू.आ. 167 ३.मू.आ. 168 ४.मू.आ. 176 A ५.अन.ध.६.४७६-४९०